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14-06-2019: Faint glimmer
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निस्तेज प्रभा
सरकार के नवीनतम त्वरित अनुमान दिखातेे हैं कि नए वित्तीय वर्ष में औद्योगिक गतिविधि पिछले वित्तीय वर्ष की अंतिम तिमाही में देखी गई प्रवृत्ति की तुलना में एक स्वस्थ टीप के साथ प्रारंभ हुई है। औद्योगिक उत्पादन अप्रैल में 3.4% बढ़ा, जो आम तौर पर व्यापक पुनरुद्धार से प्रभावित था, जिसने बिजली, खनन और यहां तक कि विनिर्माण क्षेत्र में भी,जनवरी-मार्च की अवधि में प्रदर्शित उदासीन प्रदर्शन की तुलना में तीव्रतर विकास किया था। वास्तव में, विनिर्माण उत्पादन वृद्धि, जो अक्टूबर में 8.2% की गति से तेजी से घटकर मार्च में 0.1% से कम के संशोधित स्तर तक पहुंच गई थी, चार महीने के 2.8% के उच्च स्तर पर वापिस आ गई। उपयोग-आधारित वर्गीकरण पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि सभी छह खंड सकारात्मक क्षेत्र में थे, केवल बुनियादी ढांचे और निर्माण सामग्री (infrastructure and construction goods), गत वर्ष और मार्च, दोनों स्तरों पर मंदी के शिकार थे और इस प्रकार कुछ चिंता का कारण थे। खुशी की बात यह है कि पूंजीगत माल (capital goods), एक ऐसा क्षेत्र जो कारोबारी खरीदारी के इरादों पर एक बारीकी नज़र रखने वाले प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है, ने पूरे तीन महीनों के संकुचन की स्थिति को धता बताते हुये 2.5% का विस्तार किया है।
हालांकि, सरकार की ओर से इस सप्ताह की अन्य डेटा रिलीज़ में आश्वासन कम था, जिससे यह खुलासा हुआ कि यह उपभोक्ता मुद्रास्फीति (CPI = Consumer Price Index) सूचकांक गत सात महीने के अपने उच्चतम स्तर पर था। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) द्वारा मापा गया मूल्यों का लाभ (Price gains) अप्रैल के 2.99% से मई में 3.05% तक पहुंच गया, क्योंकि शहरी क्षेत्रों में सब्जियों और दालों की कीमतें क्रमशः 23% और 10% तक उछल गईं, जिसने खाद्य मुद्रास्फीति में उछाल में योगदान दिया। पिछले सप्ताह सब्जियों की कीमतों और अंतरराष्ट्रीय ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी आदि कारकों को भारतीय रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति प्रक्षेपवक्र के जोखिमों से सम्बद्ध किया और वित्तीय वर्ष की पहली छमाही के लिये राजकोषीय मुद्रास्फीति के अनुमान में 3% से 3.1% की सीमा तक वृद्धि की। जबकि मुद्रास्फीति की वर्तमान दर RBI द्वारा निर्धारित मुद्रास्फीति की सीमा 4% से नीचे बनी हुई है, नीति निर्माताओं को मूल्य रुझानों पर कड़ी नजर रखने की आवश्यकता होगी, विशेष रूप से तब जबकि वैश्विक ऊर्जा कीमतें पश्चिम एशिया में भू-राजनीतिक तनाव और चीन-यू.एस. व्यापार तनाव के कारण मांग-दृष्टिकोण (demand outlook) पर अनिश्चितता के मदेृनजर के कारण अस्थिर बनी हुई हैं। और जबकि इस वर्ष मानसून सामान्य रहने का अनुमान है, वास्तविक वर्षा और इसके स्थानिक-वितरण का कृषि उत्पादन और खाद्य कीमतों पर महत्वपूर्ण असर पड़ेगा। नवोदय औद्योगिक पुनरुद्धार का समर्थन करने के लिए उसे आर्थिक रूप से प्रोत्साहन देता हुआ एक विवेकपूर्ण बजट, निश्चित रूप से एक बार में कई समाधान प्रस्तुत करेगा।
13-06-2019: How much plastic is in your diet?
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-life/how-much-plastic-is-in-your-weekly-diet/article27893747.ece
आपके आहार में कितना प्लास्टिक है?
शोधकर्ताओं ने पाया है कि दुनिया भर में लोग हर हफ्ते 5 ग्राम सूक्ष्म प्लास्टिक कणों को आहार के रूप में ग्रहण कर रहे हैं, यह वजन एक क्रेडिट कार्ड के वजन के बराबर है।
वैज्ञानिकों ने प्रतिवेदित किया है कि बहुलक अर्थात प्लास्टिक्स के ये लगभग अदृश्य बिट्स (nearly invisible bits of these polymers, i.e.plastic) जो शेलफिश, भालू और नमक में भी पाए गए हैं, अधिकतर नल और विशेष रूप से बोतलबंद पानी से जनित हो रहे हैं।
इस क्षेत्र के प्रथम, 52 सहकर्मी-समीक्षा किए गए अध्ययनों (52 peer-reviewed studies) से निकाले गये निष्कर्ष अनुसार, मनुष्यों द्वारा एक वर्ष के दौरान उपभोग किए गए प्लास्टिक के वजन का अनुमान लगभग 250 ग्राम प्रति मनुष्य है।
एक अन्य अध्ययन ने गणना की है कि औसत अमेरिकी वर्ष में लगभग 130 माइक्रोन से छोटे 45,000 प्लास्टिक कणों को खाता और पीता है और लगभग इती ही संख्या में सांस से ग्रहण करता है।
अगर हम इसे अपने शरीर में नहीं चाहते हैं, तो हमें उस लाखों टन प्लास्टिक को रोकने की ज़रूरत है जिसका हर साल प्रकृति में निस्तारण होता है।
ग्रैंड व्यू रिसर्च की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दो दशकों में, दुनिया ने जितना प्लास्टिक का उत्पादन किया है, वह शेष अवधि में हुये उत्पादन के बराबर है, और इस उद्योग में वर्ष 2025 तक 4% वार्षिक तक की वृद्धि होगी।
समस्त तरह के प्लास्टिक का 75% से अधिक कचरे के रूप में निस्तारित कर दी जाती है।
इसमें से एक तिहाई – लगभग 100 मिलियन टन - प्रकृति, प्रदूषित भूमि, नदियों और समुद्र में कचरे के रूप में फेंकी जाती है। इस प्रकार इन मौजूदा रुझानों के अनुसार, एलेन मैकआर्थर फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित द न्यू प्लास्टिक इकोनॉमी रिपोर्ट (The New Plastics Economy Report) के अनुसार, वर्ष 2025 तक, समुद्र में प्रत्येक तीन मीट्रिक टन मछली के सापेक्ष एक मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरा होगा।
हाल ही में प्लास्टिक के कणों को समुद्र में सबसे अधिक गहराई में पाई गयी मछली के अंदर पाया गया है, और फ्रांस और स्पेन के बीच पाइरेनीस (Pyrenees) पहाड़ों में सबसे अधिक प्राचीन बर्फ और हिमपात में प्लास्टिक के कण पाये गये हैं।
इस तथ्य से शुरू करते हुये कि स्वास्थ्य सम्बंधी सावधानियों के बारे में आमजन में बहुत कम जानकारी है,इस रिपोर्ट के लेखक ने अपने शोध की सीमाओं के बारे में जि़क्र किया है।
डेटा में मौजूद अंतरालों को मान्यताओं और अतिरिक्तताओं/ वाह्य गणनाओं से भरा गया जिन्हें चुनौती दी जा सकती थी, हालांकि अनुमान का ज़ोर रूढ़िवादी पक्ष पर था। (Gaps in data were filled with assumptions and extrapolations that could be challenged, though the estimates, they insisted, were on the conservative side.)
उन्होंने अपने निष्कर्ष पर मत देने हेतु अन्य शोधकर्ताओं को आमंत्रित किया। न्यूकैसल विश्वविद्यालय (University of Newcastle) के एक माइक्रोप्लास्टिक विशेषज्ञ, सह-लेखक थवा पलानीसामी (Thava Palanisami) ने कहा, " माइक्रोप्लास्टिक कणों की गिनती को वजन करने योग्य अवयव में बदलने की एक विधि विकसित करना मनुष्यों के लिए संभावित विषैले जोखिमों (potential toxicological risks) के निर्धारण में मदद करेगा।"
13-06-2019: Navigations in Bishkek
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-opinion/navigations-in-bishkek/article27893805.ece
बिश्केक में मार्गनिर्देशन
किर्गिस्तान के बिश्केक में 19 वें शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में भारत को दो विरोधाभासी अनिवार्यताओं के बीच मार्गनिर्देशन करना होगा। जहां एक ओर इसे (भारत को) चीन और रूस के नेतृत्व में क्षेत्रीय सहयोग के इच्छुक भागीदार के रूप में काम करना चाहिए, वहीं दूसरी ओर इसे 'अमेरिकी-विरोधी गिरोह (anti-American gang)’ के एक अंश के रूप में दिखने से बचना चाहिए। इसे एक विरोधाभास के रूप में भी देखा जा सकता है कि भारत एक ऐसे निकाय के माध्यम से आतंकवाद के खिलाफ लड़ना चाहता है जिसमें ऐसे राज्य शामिल हैं जो भारतीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।
बिश्केक में, अमेरिका के खिलाफ अपनी बढ़ती टैरिफ लड़ाई में चीन के पक्ष में रूस और मध्य एशियाई देशों द्वारा "व्यापक समर्थन" व्यक्त करने की संभावना है। भारत इस व्यापार युद्ध के बारे में समान रूप से चिंतित है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि क्या यह यूएस संरक्षणवाद (U.S. protectionism) का विरोध करने में अन्य देशों के साथ शामिल होगा। नई दिल्ली को प्रत्यक्षत: आत्म-विश्वास है कि वह चीन के समर्थन के बिना भी अमेरिका से इस सम्बंध में बात कर लेगा। यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के अतिरिक्त समस्त SCO सदस्य बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के उत्साही समर्थक हैं।
शिखर सम्मेलन में एक मौन एजेंडा होने की संभावना है। एससीओ के महासचिव व्लादिमीर नोरोव ने बहुपक्षीय सहयोग को और मजबूत करने के लिए नशीले पदार्थों की तस्करी के खिलाफ लड़ाई, आईटी में सहयोग, पर्यावरण संरक्षण और स्वास्थ्य सेवा जैसे गैर-पारंपरिक मुद्दों पर चर्चा करने के उपायों को अपनाने का संकेत दिया है। पाकिस्तान से निकलने वाले आतंकवादी तत्वों पर अंकुश लगाने की आवश्यकता पर अधिक निर्भर न रहते हुये अफगानिस्तान में आतंकवाद की स्थिति सुधर जाने के द्रष्टिकोण से आतंकवाद पर चर्चा की संभावना है। आतंकवाद से निपटने के अपने अनुभवों और शिनजियांग में धार्मिक कट्टरता के विरूद् अपनाए गये उपायों के बारे में चीन द्वारा अपने अनुभवों को साझा किया जाना सुनिश्चित है। अशांत शिनजियांग तक अपने हाई-स्पीड रेल नेटवर्क का विस्तार करने में चीन की उपलब्धि में यूरेशिया के लिए भारी आर्थिक और सुरक्षा सम्बंधी निहितार्थ हैं। अपने पश्चिमी सीमाओं से परे किसी भी संभावित संकट को पूरा करने के लिए चीन ने अपनी सैन्य प्रक्षेपण क्षमताओं को भी बढ़ाया है।
चीन की सीमा पर स्थित अलाई जिले में किर्गिस्तान एक अंतरराष्ट्रीय सीमा पार व्यापार केंद्र बनाने जा रहा है। यदि क्षेत्रीय देश 1,435 मिमी के चीनी रेलवे ट्रैक गेज को अपनाने के लिए सहमति देते हैं, तो यूरेशिया को एकजुट करने के लिए चीन, संयुक्त यूरोप को चुनौती देने में, सफल होगा। जैसे-जैसे और खुलासे होते हैं, चीन और रूस वैश्विक रणनीतिक साझेदारी के एक नए युग को अपना रहे हैं। भारत कहां फिट बैठता है, यह एक सवाल है।
शिखर सम्मेलन के मौके पर राष्ट्रपति शी के साथ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की बैठक महत्वपूर्ण होगी, विशेष रूप से जैसा कि श्री मोदी अब अपने नए विदेश मंत्री द्वारा पथप्रदशित किये जा रहे हैं। यह बैठक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी के रूप में सूचीबद्ध करने के मामले पर चीन द्वारा अपनी तकनीकी सपोर्ट को वापस लेने के फैसले के बाद भी आती है। दोनों नेताओं के लिए महत्वपूर्ण चिंता अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध का प्रभाव है, लेकिन रुझानों से देखते हुए, दोनों पक्ष लंबित द्विपक्षीय मुद्दों के एक बड़े समाधान के लिए तैयार होते दिख रहे हैं।
सीएएटीएसए (CAATSA) के तहत भारत के विरूद्ध वाशिंगटन की धमकी के संदर्भ में एस-400 अनुबंध सौदे को बचाने के लिए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ श्री मोदी की बैठक महत्वपूर्ण है। भारत और रूस के बीच 2019 के लिए एक महत्वाकांक्षी आर्थिक एजेंडा है, और श्री पुतिन सितंबर में व्लादिवोस्तोक में पूर्वी आर्थिक मंच में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहने के श्री मोदी को दिये गये निमंत्रण को दोहरा सकते हैं। न केवल आर्थिक सहयोग विकसित करने के लिए बल्कि क्षेत्र में चीनी जनसांख्यिकीय के खतरों को दूर करने के लिए कुशल मजदूरों को स्थानांतरित करने की संभावनाओं की खोज की पृष्ठभूमि में यह भारत के लिए रूस के सुदूर पूर्व क्षेत्र का अन्वेषण करने के लिए एक अच्छा अवसर होगा। रूस भी चाहता है कि भारत आर्कटिक: टेरिटरी ऑफ डायलॉग फोरम में शामिल हो।
क्षेत्रीय आतंकवाद विरोधी संरचना को और अधिक प्रभावी बनाने हेतु एक ‘सहकारी और टिकाऊ सुरक्षा’ ढांचे को विकसित करने के लिए भारत SCO के भीतर काम करने के लिए और अफगानिस्तान में स्थिरता लाने के प्रयासों में भाग लेने के लिये प्रतिबद्ध प्रतीत होता है। भले ही मध्य एशियाई देशों की क्षेत्रीय आकांक्षाएँ भारत के लक्ष्यों के विपरीत हैं, फिर भी ये देश अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक सम्मेलन (Comprehensive Convention on International Terrorism) के लिए भारत के प्रस्ताव का समर्थन करते हैं। पुलवामा और श्रीलंका में हमलों पर एससीओ का ध्यान आकर्षित करके आतंकवाद से लड़ने के भारत के संकल्प को श्री मोदी का इस मुद्दे पर चर्चा करानानिश्चित है। लेकिन चीन यह नहीं चाहेगा कि भारत एससीओ का इस्तेमाल आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान का नाम लेने और उसे शर्मिन्दा करने के लिए करे।
भारत बीआरआई (BRI) के मामले में अपनी स्थिति पर कायम रह सकता है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे, चाबहार पोर्ट, अश्गाबात समझौते और भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग (International North-South Transport Corridor, the Chabahar Port, the Ashgabat Agreement and the India-Myanmar-Thailand Trilateral Highway) सम्बंधी मामलों में तवरित गति संभव है।
भारत-पाकिस्तान गतिरोध अभी भी बरकरार है, लेकिन बालाकोट में भारत के हवाई हमलों के बाद से वातावरण थोड़ा बदल गया है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान थोड़ा कम हमलावर (belligerent) हुये हैं, लेकिन भारत विरोधी आतंकी समूहों पर लगाम लगाने के लिए पाकिस्तानी सेना कड़े कदम उठा रही है या नहीं, स्पष्ट नहीं है। यदि एससीओ बैठक में दोनों की मुलाकात होती है, और यदि श्री खान चाहते हैं कि श्री मोदी कूटनीति अपनाऐं, उन्हें स्पष्ट रूप से यह प्रदर्शित भी करना होगा। संबंधों के सामान्यीकरण के पक्ष में श्री मोदी एक नया नीतिगत पाठ्यक्रम तैयार कर सकते हैं, खासकर जब से भारत ने मसूद संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद से अजहर को एक वैश्विक आतंकवादी के रूप में नामित कराया है।
पाकिस्तान प्रमुख क्षेत्रीय सुरक्षा मुद्दों (अफगानिस्तान और कश्मीर) को विनियमित करने के लिए एससीओ पर उच्च उम्मीदें रखता है, हालांकि एससीओ अपने मंच से द्विपक्षीय विवादों को उठाने के लिए हतोत्साहित करता है। इसका अन्य एजेंडा क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण और सुरक्षा सहयोग के लिए चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को बढ़ावा देने के अलावा ग्वादर पोर्ट को मध्य एशियाई राज्यों के लिए एक संभावित मार्ग के रूप में प्रचार करना होगा।
यह सुनिश्चित है कि संयुक्त एससीओ सैन्य अभ्यास सहित संस्थागत स्तर के उपायों में से एक से भी अब तक संयुक्त रूप से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में कोई संतोषजनक परिणाम नहीं मिला है। फिर भी, एससीओ भारत के लिए इस कारण से प्रासंगिक है कि वह यूएनएससी के सुधारों के लिए समर्थन जुटाए ताकि इस परिषद में भविष्य में आने वाले प्रतिनिधि और प्रभावी बन सकें। भारत लंबे समय से UNSC की गैर-स्थायी सदस्यता के लिए सदस्य देशों की उम्मीदवारी को समर्थन दे रहा है।
11-06-2019: Striking a balance (Editorial)
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-opinion/striking-a-balance/article27768928.ece
संतुलन का निर्माण (संपादकीय)
बैंकिंग प्रणाली में गैर-निष्पादित ऋणें की अव्यवस्था में भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) के सुधार लाने के प्रयासों को अप्रैल में उस समय झटका लगा जब सुप्रीम कोर्ट ने 12 फरवरी, 2018 के आरबीआई के परिपत्र को अधिकारातीत (ultra vires) करार दिया। 7 जून को केंद्रीय बैंक द्वारा परिपत्र के संस्करण 2.0 के रूप में जारी शीर्षक “प्रूडेंशियल फ्रेमवर्क फॉर रिज़ॉल्यूशन ऑफ़ स्ट्रेस्ड एसेट्स (Prudential Framework for Resolution of Stressed Assets)” वाला परिपत्र बैंकों और उधारकर्ताओं की चिंताओं को समायोजित करते हुए भी परिपत्र के मूल संस्करण की भावना को बनाए रखने का प्रबंधन करता है। दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया का सहारा लिए बिना परन्तु साथ ही, निर्धारित समय सीमा के भीतर, प्रतिबंधों से रिक्त एक संकल्प तैयार करने के लिये बैंकों को अवसर देने और रोगग्रस्त परिसम्पत्तियों के निराकरण करने सम्बंधी दो उद्देश्यों के बीच आरबीआई ने एक अच्छा संतुलन हासिल किया है। उधारकर्ता (borrower) के चूक (default) करने की स्थिति में समाधान रणनीति पर निर्णय लेने के लिए बैंकों के पास पूर्व के एक-दिन मानक की तुलना में अब 30 दिनों की समीक्षा अवधि होगी। उन्हें यह भी तय करने की स्वतंत्रता होगी कि शोध-अक्षमता न्यायालय (insolvency court) में चूककर्ता (defaulter) के विरूद्ध प्रकरण प्रस्तुत किया जाए या नहीं, यदि चूक (डिफॉल्ट) करने के 180 दिनों के भीतर समाधान नहीं होता है। बैंकों के पास पहले ऐसा कोई विकल्प नहीं था। ऋणदाताओं के मध्य अंर्तऋणदाता करार (Inter Creditor Agreement) का निष्पादन अनिवार्य करके, आरबीआई ने यह सुनिश्चित किया है कि वे संगत मुद्दों पर एकमत रहेंगे, जबकि यह शर्त कि असंतुष्ट ऋणदाताओं को (सम्पत्ति का) परिसमापन मूल्य से कम नहीं मिलना चाहिए, समाधान प्रक्रिया के तहत वसूली सुनिश्चित करना आसान बनाता है।
आरबीआई का यह सूक्ष्म दृष्टिकोण उल्लेखनीय है। यदि 180 दिनों के भीतर बैंक द्वारा कोई समाधान क्रियान्वयित नहीं किया जाता है बैंकों को 20% अतिरिक्त प्रावधान किये जाने के रूप में निवर्तक (disincentives) वहन करने होंगे और इस 180 दिनों की सीमा को एक वर्ष तक विस्तारित किये जाने पर 15% का एक अतिरिक्त प्रावधान किया जाना अनिवार्य होगा। यदि यह मापदंड है, तो प्रलोभन यह है कि वे एक बार इन्सॉल्वेंसी कोर्ट में प्रकरण को संदर्भित कराकर अतिरिक्त प्रावधान के आधे हिस्से को वापस पा सकते हैं और शेष आधे को भी बैंकों द्वारा वापस पाया जा सकता है यदि उनके ऐसे संदर्भ को इनसॉल्वेंसी समाधान के लिए स्वीकार कर लिया जाता है। यह दृष्टिकोण बैंकों द्वारा डिफॉल्टर के इनसॉल्वेंसी प्रक्रिया में संदर्भ करने से पहले (समाधान के) सभी विकल्पों के खोज करने की स्वतंत्रता देगा। बैंको को, बिगड़ैल स्कूली बच्चों को जैसे स्टिक के साथ अनुशासित रखने की जरूरत के बजाय, आरबीआई ने उनके साथ जिम्मेदार वयस्कों, जो यह जानते हैं कि डिफॉल्टर्स को संभालने के लिए उनके लिए क्या अच्छा है, जैसा व्यवहार करने के लिए कार्य किया है। बेशक, इस छड़ी से उपजे अनुशासन को आरबीआई मूलत: इसलिये लागू कराने के लिये मजबूर था क्योंकि बैंकों ने ऋणों को सदाबहार खैरात समझकर बेतरतीबी से बांटा और इस प्रकार ठीक अपनी ज़मीन के नीचे एनपीए (NPA = Non-performing Assets) में वृद्धि की। यह आशा की जानी चाहिए कि वे अब आरबीआई द्वारा उन पर किये गए विश्वास को बनाए रखेंगे। केंद्रीय बैंक, वैसे भी, बैंकिंग विनियमन अधिनियम की धारा 35AA के तहत, उसको प्रदाय शक्तियों के उपयोग से विशिष्ट मामलों में दिवाला कार्यवाहियॉ (insolvency proceedings) शुरू करने के लिए अधिकार को सुरक्षित रखता है। इस बीच, सरकार को यह ऑकलन करना होगा कि इनसॉल्वेंसी रिजॉल्यूशन प्रक्रिया (insolvency resolution process) में क्या कमी रह गई जिससे एस्सार स्टील से शुरू हुये कई हाई-प्रोफाइल डिफॉल्टरों के मामले उलझ गये हैं। समाधान में विलम्ब अच्छे संकेत नहीं हैं, और प्रक्रियात्मक दिक्कतें जिन्हें चूककर्ता आमतौर पर समाधान प्रक्रिया को बिगाड़ने के लिए उपयोग करते हैं, को ठीक किया जाना चाहिये। अंतत: समाधान प्रक्रिया में लगने वाली दीर्घावधि के कारण बैंकों द्वारा इन्सॉल्वेंसी कोर्ट में मामलों का संदर्भ प्रस्तुत नहीं करने का विकल्प चुनने पर, बैंकों द्वारा RBI के प्रयासों को अंतत: विफल कर दिया जाएगा।
11-06-2019: Artificial Intelligence, the law and the future
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-opinion/artificial-intelligence-the-law-and-the-future/article27768941.ece
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, कानून और भविष्य
फरवरी में, केरल पुलिस ने पुलिस के काम के लिए एक रोबोट को शामिल किया। उसी महीने, चेन्नई को अपना दूसरा रोबोट-थीम वाला रेस्तरां मिला, जहाँ रोबोट न केवल वेटर के रूप में काम करते हैं, बल्कि अंग्रेजी और तमिल में ग्राहकों के साथ बातचीत भी करते हैं। अहमदाबाद में, दिसंबर 2018 में, एक हृदय रोग विशेषज्ञ ने लगभग 32 किमी दूर एक मरीज पर दुनिया का पहला इन-ह्यूमन टेलरोबोटिक कोरोनरी हस्तक्षेप किया। ये सभी उदाहरण हमारे रोजमर्रा के जीवन में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के आगमन का प्रतीक हैं। एआई के पास कई सकारात्मक अनुप्रयोग हैं, जैसा कि इन उदाहरणों में देखा गया है। लेकिन अनुभव से सीखने और मनुष्यों के लिए स्वायत्त रूप से प्रदर्शन करने के लिए एआई सिस्टम की क्षमता एआई को 21 वीं सदी की सबसे विघटनकारी और आत्म-परिवर्तनकारी (self-transformative) तकनीक के रूप में स्थापित करती है।
यदि एआई को उचित रूप से विनियमित नहीं किया जाता है, तो इसके अकल्पनीय प्रभाव जनित होना निश्चित है। उदाहरण के लिए, कल्पना कीजिए कि बिजली की आपूर्ति अचानक बंद हो जाती है, जबकि एक रोबोट सर्जरी कर रहा है, और एक डॉक्टर तक पहुंच समाप्त हो गई है? और अगर कोई ड्रोन किसी इंसान से टकरा जाए तो? ये सवाल पहले ही अमेरिकी और जर्मनी में अदालतों का सामना कर चुके हैं। भारत सहित सभी देशों को इस तरह की विघटनकारी तकनीक का सामना करने के लिए कानूनी रूप से तैयार होने की आवश्यकता है।
हालांकि, कानूनी मुद्दों और उनके समाधानों की भविष्यवाणी करना और उनका विश्लेषण करना उतना आसान नहीं है। उदाहरण के लिए, आपराधिक कानून आने वाले समय में कठोर चुनौतियों का सामना करने वाला है। क्या होगा अगर एआई-आधारित ड्राइवर रहित कार दुर्घटना में हो जाती है जो मनुष्यों को नुकसान पहुंचाती है या संपत्ति को खराब करती है? अदालतों को इसके लिए किसे उत्तरदायी ठहराना चाहिए? क्या एआई को जानबूझकर या लापरवाही से दूसरे को चोट पहुंचाने के लिए सोचा जा सकता है? क्या रोबोट विभिन्न अपराधों को घटित करने के लिए एक गवाह के रूप में या एक उपकरण के रूप में कार्य कर सकते हैं?
इसहाक असिमोव (Isaac Asimov) के, ‘रोबोटिक्स के तीन कानून’ को छोड़कर, जो वर्ष 1942 में प्रकाशित उनकी लघु कहानी Runaround में वर्णित हुये, केवल हाल ही में स्मार्ट प्रौद्योगिकियों पर एक कानून विकसित करने के लिए विश्व भर में रुचि जगी है। अमेरिका में, AI के विनियमन के बारे में बहुत चर्चा हुई है। जर्मनी ने स्वायत्त वाहनों के लिए नैतिक नियमों का हवाला प्रस्तुत किया है, जो यह कहते हैं कि मानव जीवन को हमेशा संपत्ति या पशु जीवन पर प्राथमिकता देनी चाहिए। चीन, जापान और कोरिया स्व-चालित कारों पर एक कानून विकसित करने में जर्मनी का अनुसरण कर रहे हैं।
भारत में, NITI Aayog ने जून 2018 में एक नीति पत्र, 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के लिए राष्ट्रीय रणनीति (National Strategy for Artificial Intelligence)’ जारी किया, जिसने विभिन्न क्षेत्रों में AI के महत्व पर विचार किया। बजट 2019 में एआई पर एक राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू करने का भी प्रस्ताव रखा। जबकि ये सभी विकास तकनीकी मोर्चे पर हो रहे हैं, इस बढ़ते उद्योग को विनियमित करने के लिए देश में आज तक कोई व्यापक कानून नहीं बनाया गया है।
पहले हमें एआई की कानूनी परिभाषा चाहिए। साथ ही, भारत के आपराधिक कानून न्यायशास्त्र में इरादे (intention) के महत्व को देखते हुए, एआई के कानूनी व्यक्तित्व को स्थापित करना आवश्यक है (जिसका अर्थ है कि एआई के पास अधिकारों और दायित्वों का एक बंडल होगा), और क्या इस प्रकार के व्यक्तित्व के लिये ‘इरादे’ को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। जिम्मदारी या दायित्व के मामले पर जनित प्रश्न का उत्त्र देने के लिए, चूंकि एआई को निर्जीव माना जाता है, एक कठोर देयता योजना (strict liability scheme) जो उत्पाद के निर्माता या निर्माता को, दोष के इतर, नुकसान के लिए उत्तरदायी ठहराती है, एक दृष्टिकोण हो सकती है। चूंकि गोपनीयता एक मौलिक अधिकार है, एआई इकाई के पास मौजूद डेटा और उसकी प्रक्रिया एवं उपयोग को विनियमित करने के लिए कुछ नियमों को व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2018 के हिस्से के रूप में तैयार किया जाना चाहिए।
ट्रैफिक दुर्घटनाएं भारत में प्रतिदिन लगभग 400 लोगों की मौत का कारण बनती हैं, जिनमें से 90% मानवीय त्रुटियों के कारण होती हैं, जिनको रोका जा सकता है। स्वायत्त या स्वचलित वाहन जो एआई पर आधारित होंगे, स्मार्ट चेतावनी, निवारक और रक्षात्मक तकनीकों के माध्यम से इसे काफी कम कर सकते हैं। विशेषज्ञ डॉक्टरों की अनुपलब्धता के कारण कभी-कभी मरीजों की मृत्यु हो जाती है। एआई रोगियों और डॉक्टरों के बीच की दूरी को कम कर सकता है। लेकिन जैसा कि भविष्यवादी ग्रे स्कॉट कहते हैं, "असली सवाल यह है कि हम अधिकारों के एक कृत्रिम बुद्धि बिल (artificial intelligence bill of rights) का मसौदा कब तैयार करेंगे? इससे क्या होगा? और यह तय कौन करेगा? ”
G.S. Bajpai is Chairperson, Centre for Criminology & Victimology, National Law University, Delhi and Mohsina Irshad is a research scholar at NLU, Delhi
10-06-2019: St. Petersburg consensus (Editorial)
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-opinion/st-petersburg-consensus/article27708004.ece
सेंट पीटर्सबर्ग की सर्वसम्मति (संपादकीय)
पिछले सप्ताह सेंट पीटर्सबर्ग इंटरनेशनल इकोनॉमिक फोरम में चीन और रूस के नेताओं के बीच की आपसी बातचीत बहुत स्पष्ट अमेरिका और दोनों देशों अर्थात रूस और चीन के बीच बढ़े तनाव के मद्देनज़र, यूएस के रूस में राजदूत जॉन हंट्समैन (Jon Huntsman) द्वारा रूस की वार्षिक निवेश बैठक का बहिष्कार किया गया था। उनकी अनुपस्थिति को विदेशी उद्यमियों के लिए रूस में प्रचलित वातावरण में बताया गया था, जो धोखाधड़ी के आरोपों पर अमेरिकी निजी इक्विटी निवेशक माइकल कैलेवे (Michael Calvey) की नजरबंदी से जोड़ा गया था। इसके विपरीत, चीनी दूरसंचार उपकरण निर्माता हुआवेई (Huawei) ने, वाशिंगटन में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फर्म को अलग करने के प्रयासों के लिए विरोध में एक दो टूक जवाब के रूप में, रूस में 5 जी नेटवर्क शुरू करने के लिए रूस के प्रमुख मोबाइल ऑपरेटर के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और उनके चीनी समकक्ष शी जिनपिंग ने सेंट पीटर्सबर्ग में यह स्पष्ट कर दिया कि पश्चिम के साथ (दोनों देशों का) तनाव मात्र उन्हें करीब लाया। रूस के साथ दरार 2014 में मास्को के क्रीमिया को कब्जे में लेने और पूर्वी यूक्रेन में गतिरोध के कारण शुरू हुई। अमेरिका और कुछ यूरोपीय संघ के देशों के साथ रूस के तनाव का कारण भी रूस से जर्मनी के लिए 1,200 किलोमीटर लंबी नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन (Nord Stream 2 gas pipeline) थी। अमेरिका की आपत्तियां इस बात को लेकर हैं कि यूरोप को तरलीकृत प्राकृतिक गैस का निर्यात उसके द्वारा किया जाए, और साथ ही इस क्षेत्र की ऊर्जा बाजार पर हावी होने के लिए मास्को की महत्वाकांक्षा को विफल किया जाएगा। 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में संभावित रूसी हस्तक्षेप के लिए अमेरिकी काउंसिल के विशेष वकील रॉबर्ट मुलर (Robert Mueller) की जांच बहुत अधिक संवेदनशील मुद्दा वाशिंगटन द्वारा हुआवेई को ब्लैक लिस्ट करने, उसे अमेरिका में प्रौद्योगिकी बेचने से रोकने और घरेलू फर्मों को बीजिंग में अर्धचालक (semiconductors) की आपूर्ति करने से रोकना, स्वयं के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विवादों के वर्ग में आता है।
इन तनावों के बीच, सेंट पीटर्सबर्ग में श्री शी और श्री पुतिन ने जोर देकर कहा कि द्विपक्षीय संबंध एक ऐतिहासिक उच्च स्तर पर थे, जो कि कूटनीतिक और रणनीतिक सहयोग में वृद्धि से चिह्नित थे। चीन ने पिछले सितंबर में अपनी पूर्वी सीमा पर रूसी सैन्य अभ्यास में भाग लिया, जो एक एतिहासिक घटना थी। शीत युद्ध काल के शत्रुतापूर्ण प्रतिद्वंद्वी मास्को और बीजिंग, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर कुछ समय के लिए साथ भी आते रहे हैं। द्विपक्षीय संबंध व्यावहारिकता द्वारा भी संचालित होते हैं। बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत चीन के बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे के निवेश की बदौलत मध्य एशिया में बढ़ते चीनी आर्थिक दबदबे के बारे में रूस यथार्थवादी दिखाई देता है। इसके अलावा एक वैकल्पिक परिवहन केंद्र के रूप में आर्कटिक के साथ उत्तरी सागर मार्ग के दोहन के लिए रूस की विस्तृत योजनाओं के लिए चीनी सहयोग महत्वपूर्ण साबित होगा। रूस को अलग-थलग करने में अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध बहुत प्रभावी नहीं रहे हैं। यूरोपीय राज्यों, विशेष रूप से जर्मनी, श्री पुतिन के विस्तारवादी उद्देश्यों को शामिल करने के लिए रूस के साथ संलग्न होने के महत्व को पहचानते हैं। समान रूप से, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की "अमेरिका पहले" नीति मजबूत प्रतिद्वंद्वियों के मध्य एक आम राय और समान कारक बनाने के लिए मजबूर कर रही है।
10-06-2019: Inhumane, and utterly undemocratic
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अमानवीय, और पूर्णतया अलोकतांत्रिक
गौहाटी उच्च न्यायालय के आदेश पर, मोहम्मद सनाउल्लाह को 8 जून को असम के एक निग्रह शिविर (detention camp) से जमानत पर रिहा कर दिया गया था। 29 मई को उन्हें हिरासत में लिया गया था, जब एक विदेशी सम्बंधी मामले के ट्रिब्यूनल (Foreigners Tribunal) ने उन्हें एक अवैध अप्रवासी (illegal immigrant) घोषित किया था। गौहाटी उच्च न्यायालय का जमानत आदेश, इस रहस्योद्घाटन के द्वारा कि श्री सनाउल्ला ने भारतीय सेना में तीन दशकों तक सेवा की थी, एक सप्ताह की जनता की निरंतर मांग पर आया।
इसी बीच, अनियमितताओं की एक चौंकाने वाली संख्या सामने आई। अपनी जांच रिपोर्ट में, असम सीमा पुलिस ने लिखा था कि श्री सनाउल्ला एक 'मजदूर' थे। केस रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने वाले तीन व्यक्तियों ने दावा किया कि जांच अधिकारी ने उनके फर्जी हस्ताक्षर किए थे। जांच अधिकारी ने खुद स्वीकार किया कि यह एक "प्रशासनिक घपला" हो सकता है। फिर भी, यह ऐसी नकली कथनों के आधार पर विदेशी ट्रिब्यूनल - एक अर्ध-न्यायिक निकाय जिससे कानून के शासन (rule of law) का पालन करने की उम्मीद की थी - इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि श्री सनाउल्ला एक "विदेशी" थे, और उन्हें निग्रह शिविर में भेज दिया - जब तक उच्च न्यायालय ने उन्हें स्वतंत्र नहीं किया।
लेकिन श्री सनाउल्ला किस्मत वालों में से हैं। खोजी पत्रकारों ने पिछले कुछ वर्षों में खुलासा किया है कि इस तरह की 'प्रशासनिक त्रुटियां' अपवाद के बजाय नियम हैं। जैसा कि श्री सनाउल्ला ने रिहा होने के बाद एक साक्षात्कार में स्वीकार किया, नजरबंदी शिविरों में समान कहानियों वाली ऐसे लोग थे, जो 10 साल या उससे अधिक समय से वहां थे।
इन व्यक्तियों के लिए, मीडिया जांच के लाभ के बिना, कोई जमानत नहीं हो सकती है - केवल एक अंतहीन निरोध। लेकिन राष्ट्रीय मंच पर बातचीत को मजबूर करके, श्री सानुआल्लाह के मामले ने आशा व्यक्त की है कि हम अभी तक असम में जारी नागरिकता त्रासदी को पहचान सकते हैं कि यह क्या है, और अभी भी समय है जबकि कगार से वापस कदम है।
असम समझौते के अनुसार, 24 मार्च 1971 के बाद असम में प्रवेश करने वाले व्यक्ति अवैध प्रवासी हैं। नागरिकता स्थापित करने के लिए दो समानांतर प्रक्रियाएं हैं: विदेशी अधिनियम (Foreigners Act) के तहत काम करने वाले विदेशी ट्रिब्यूनल (Foreigners Tribunals), और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी), जो तैयारी की प्रक्रियान्तर्गत है। नाममात्र और औपचारिक रूप से स्वतंत्र होते हुए, विदेशी ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशी घोषित किये लोगों को और उनके परिवारों को भी एनआरसी के प्रारूप से हटा देने की व्यवस्था के मद्देनज़र, व्यवहार में ये दोनों प्रणालियां एक-दूसरे में समाहित हैं,
नागरिकता को एक मौलिक और महत्वपूर्ण अवयव के रूप में देखते हुये, कोई भी यह उम्मीद करेगा कि इन प्रणालियों को प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के साथ यथासंभव सावधानीपूर्वक लागू किया जाएगा। यह विशेष रूप से सच है जब हम एक गैर-नागरिक घोषित किए जाने के परिणामों के बारे में सोचते हैं: विघटन, सार्वजनिक सेवाओं से बहिष्कार, निग्रह शिविरों में अव्यवस्था, राजयविहीन होना, और निर्वासन। एक व्यक्ति या एक इंसान को इस प्रकार घोषित करने से पहले, इस तरह के कठोर परिणामों की पराकाष्ठा की पृष्ठभूमि में, एक सभ्य और सभ्य समाज कम से कम यह सुनिश्चित कर सकता है कि कानून के शासन का अंतिम सीमा तक पालन किया गया है।
हालांकि, वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। प्रकरणों की एक बड़ी संख्या में, कानूनी तौर पर एक व्यक्ति को एक संदिग्ध "विदेशी" के रूप में ट्रिब्यूनल के सामने प्रस्तुत किये जाने से पहले प्रारंभिक पूछताछ वास्तविक रूप से होती ही नहीं - वास्तव में, यह श्री सनाउल्ला के लिए भी नहीं हुई। ट्रिब्यूनल्स स्वयं बहुत सीमित संख्या में उपलब्ध प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों से विवश हैं। इसने उन परिस्थितियों को जन्म दिया है, जहां ट्रिब्यूनलों ने केवल संदिग्ध "विदेशी" के बजाय उनके पूरे परिवारों को नोटिस जारी किए हैं। इसके अतिरिक्त, विभिन्न प्रतिवेदन यह भी स्पष्ट करते हैं कि विदेशी ट्रिब्यूनल व्यक्तियों को दस्तावेजों में लिपिक त्रुटियों, जैसे कि वर्तनी की गलती, उम्र में असंगतता, और इसी तरह के आधार पर "विदेशी" होने की आदतन घोषणा करते हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि, "न्याय" के इस रूप से सबसे दुष्कर प्रहार से पीडि़त कमजोर और हाशिए पर रहने वाले ही हैं जो हैं, जिनके पास उनके उपलब्ध दस्तावेज़ों प्रस्तुतिकरण के सर्वश्रेष्ठ समय में भी सबसे सीमित दस्तावेज हैं, और जो शायद ही कभी दस्तावेजों में त्रुटियों को ठीक करने की स्थिति में हैं। अनेक अवसरों पर, न्यायाधिकरणों द्वारा नागरिकता का निर्धारण करने वाले आदेश भी बिना किसी कारण को दर्शाए हुये पारित किए गए हैं, जबकि कारण दर्शाते हुये ही आदेश जारी किया जाना विधि शासन के पालन के लिए एक बुनियादी शर्त है। इसके अलावा, पर्याप्त संख्या में व्यक्तियों को बिना सुनाई का अवसर दिए हुये निग्ह शिविरों में भेज दिया जाता है - एकपक्षीय आदेशों के आधार पर - और निग्रह केंद्र वास्तव में एकाग्रता शिविरों (concentration camps) की तुलना में थोड़ा ही बेहतर होते हैं, जहां परिवारों को अलग कर दिया जाता है और लोगों को वर्षों तक एक संकीर्ण और सीमित जगह में ही रहना होता है और उससे परे जाने की अनुमति नहीं होती है।
एनआरसी प्रक्रिया थोड़ी बेहतर है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रेरित, इसे सीलबंद कवर और अपारदर्शी कार्यवाही द्वारा परिभाषित किया गया है। उदाहरण के लिए, NRC समन्वयक के साथ एक बंद-दरवाजे वाले कमरे में परामर्श वाली व्यवस्था में, सुप्रीम कोर्ट ने "पारिवारिक वृक्ष विधि" के रूप में ज्ञात नागरिकता का एक नया तरीका विकसित किया। इस पद्धति पर सार्वजनिक रूप से कोई बहस नहीं हुई और न ही कोई छानबीन की गई, और जमीनी रिपोर्टों में पाया गया कि दूरदाज के इलाकों के लोग न केवल इस विधि से अनजान थे, बल्कि जो लोग जानते थे, उन्हें उस तरह के "पारिवारिक वृक्ष" को परिभाषित करने या एक साथ एकत्र करने में विशेष कठिनाइयाँ थीं जो आवश्यक था (यह कार्य महिलाओं पर असम्मानजनक रूप से थोप दिया गया)। और हाल ही में, यह पाया गया कि एक प्रक्रिया जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति उन लोगों के खिलाफ "आपत्तियां" दर्ज कर सकता था जिनके नाम एनआरसी के मसौदे में आ चुके थे - और जिसके आधार पर ये लोग एक बार फिर से अपनी नागरिकता साबित करने के लिए मजबूर हुये – की परिणीति उन प्रथमद्रष्टया दर्शित यादृच्छिक आधार पर हजारों अंधाधुंध आपत्तियों के दर्ज होने में हुई, जो अनगिनत व्यक्तियों के लिये भीषण कठिनाई और आघात का कारण बनीं। हालाँकि, जब इन "आपत्तियों" का समन्वय करने वाले लोगों से संपर्क किया गया, तो उन्होंने यह कहकर इनका निस्तारण यह कहकर कर दिया कि यह अवैध प्रवासियों को बाहर निकालने की कोशिशों में "संपार्श्विक क्षति (collateral damage)" मात्र थी।
इस तरह की खामियों से त्रस्त एक प्रक्रिया में, और जहां परिणाम बहुत कठोर हैं, किसी को भी एक न्यायिक व्यवस्थापक, मौलिक अधिकारों के संरक्षक और विधि-शासन को सुनिश्चित करने वाली एजेन्सी से हस्तक्षेप करने की उम्मीद होगी। इसके बजाय, भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट ने चीयरलीडर, प्रसाविका और अधिदर्शक की भूमिकाएँ निभाई है।
हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय जो समझने में विफल रहा है, वह यह है कि जीवन और मृत्यु के सवालों में, जहाँ त्रुटि की लागत इतनी अधिक है, यह प्रकरणों के निस्तारण की "गति" नहीं है जो मायने रखती है, वह है अधिकारों की सुरक्षा। लेकिन अपने आचरण के माध्यम से, सुप्रीम कोर्ट ने खुद को विधि-शासन के रक्षक के स्थान पर स्वयं को अपने दैनिक उल्लंघन के उत्साही अभिजन में बदल दिया है। और गौहाटी उच्च न्यायालय ने एक विचित्र और अनुचित आदेश पारित करते हुए कि कोई बेहतर कार्य नहीं किया है जिसमें उद्धत है कि यह एक "तार्किक स्वभाविक परिणाम (logical corollary)" होगा कि घोषित विदेशियों के परिवार के सदस्य भी विदेशी होंगे, जिसके आधार पर सीमा पुलिस ने एनआरसी अधिकारियों को पूरे परिवारों के नाम प्रेषित किये हैं। संवैधानिक अदालतों को कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह इसका बहुत बड़ा विरोधाभास है।
मोहम्मद सानूल्लाह, अब एक स्वतंत्र व्यक्ति है। लेकिन एक ऐसा समाज है, जिसमें उसका मामला नियम के बजाय अपवाद है, जहां किसी व्यक्ति को एक पूर्व-सैनिक होने की जरूरत है, और अंतरिम जमानत दिए जाने से पहले पूरे एक सप्ताह के लिए राष्ट्रीय मीडिया पीछे लगा रहा, है जिसे विधि-शासन द्वारा पूरी तरह से त्याग दिया गया। फिर भी श्री सनाउल्लाह का मामला कुछ अच्छा कर सकता है: यह एक ऐसी स्थिति के बारे में कुछ तत्काल राष्ट्रीय आत्मनिरीक्षण का संकेत दे सकता है, जहां असम राज्य में, हजारों लोग वर्षों से नजरबंदी शिविरों में सड़ रहे हैं।
10-06-2019: All States can constitute Foreigners Tribunals
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/all-states-can-constitute-foreigners-tribunals/article27708145.ece
सभी राज्य विदेशी ट्रिब्यूनल का गठन कर सकते हैं
असम के नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की पृष्ठभूमि के साथ, गृह मंत्रालय (एमएचए) ने देश भर में अवैध रूप से रह रहे विदेशी नागरिकों का पता लगाने, उनका पता लगाने और निर्वासित करने के लिए विशिष्ट दिशानिर्देश जारी किये हैं। गृह मंत्रालय ने Foreigners (Tribunals) Order, 1964 में संशोधन किया है और सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में जिला मजिस्ट्रेटों को यह निर्णय कराने के लिए ट्रिब्यूनल्स स्थापित करने का अधिकार दिया है कि क्या भारत में अवैध रूप से रहने वाला व्यक्ति विदेशी है।
इससे पहले, न्यायाधिकरणों का गठन करने की ऐसी शक्तियां केवल केंद्र में वेष्टित थीं।
यह निर्धारित करने के लिए कि अवैध रूप से रहने वाला व्यक्ति "विदेशी" है या नहीं, न्यायाधिकरण, असम के लिए अद्वितीय, अर्ध-न्यायिक निकाय हैं। (देश के) अन्य भागों में, एक बार एक 'विदेशी' को पुलिस द्वारा अवैध रूप से रहने के लिए गिरफ्तार किये जाने पर, उसे पासपोर्ट अधिनियम, 1920, या विदेशी अधिनियम, 1946 (Passport Act, 1920, or the Foreigners Act, 1946) के तहत स्थानीय न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है जिसमें तीन माह से आठ वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है। एक बार अभियुक्तों की सजा पूरी हो जाने के बाद, न्यायालय उनके निर्वासन (deportation) का आदेश देता है, और उन्हें तब तक हिरासत में रखा जाता है जब तक कि उनका मूल देश उन्हें स्वीकार नहीं कर लेता।
ट्रिब्यूनलों के गठन के सम्बंध में 1964 के आदेश में कहा गया है: “केंद्र सरकार, आदेश द्वारा, इस प्रश्न को कि क्या कोई व्यक्ति विदेशी अधिनियम, 1946 (1946 का 31) के अर्थ के लिए एक विदेशी व्यक्ति नहीं है, किसी ट्रिब्यूनल जिसका गठन इस उद्देश्य के लिये किया जाए, को इसकी राय के लिए संदर्भित कर सकती है।" गत सप्ताह जारी किये गये संशोधित आदेश के अनुसार -"शब्द (केंद्र सरकार) के लिए, को '’शब्द (केंद्र सरकार या राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन या जिला कलेक्टर या जिला मजिस्ट्रेट)" से प्रतिस्थापित किया जाएगा।
हाल ही में, असम में अंतिम एनआरसी के प्रकाशन के मद्देनजर गृह मंत्रालय ने 31 जुलाई तक लगभग 1000 ट्रिब्यूनल स्थापित करने की स्वीकृति दी गई। उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुसार, असम में रहने वाले उन भारतीय नागरिकों को अलग करने के लिए, जिन्होंने 25 मार्च, 1971 के बाद बांग्लादेश से अवैध रूप से राज्य में प्रवेश किया था, भारत के रजिस्ट्रार जनरल (RGI) ने गत वर्ष की 30 जुलाई को NRC की अंतिम सूची का प्रारूप प्रकाशित किया। गत वर्ष प्रकाशित असम के अंतिम प्रारूप में लगभग 40 लाख लोगों को बाहर रखा गया था। NRC, 1985 के असम समझौता का एक नतीजा है। बहिष्कृत किए गए 36 लाख लोगों ने बहिष्करण के खिलाफ दावे दायर किए हैं, जबकि चार लाख निवासियों ने आवेदन नहीं किया है।
संशोधित विदेशी (ट्रिब्यूनल) आदेश, 2019 सम्बंधित व्यक्तियों को भी ट्रिब्यूनल्स से सम्पर्क करने का अधिकार देता है। “पहले केवल राज्य शासन किसी संदिग्ध के विरूद्ध ट्रिब्यूनल में प्रकरण प्रस्तुत कर सकता था, लेकिन प्रकाशित होने वाली अंतिम एनआरसी को द्रष्टिगत रखते हुये और एनआरसी में शामिल नहीं होने वाले व्यक्तियो को पर्याप्त अवसर देने के लिए यह किया गया है। यदि कोई व्यक्ति अंतिम सूची में अपना नाम नहीं पाता है, तो वह ट्रिब्यूनल से सम्पर्क कर सकता है।
पिछले महीने, गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों के प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक बुलाई, जिसमें भारत में अवैध रूप से रह रहे विदेशी नागरिकों का पता लगाने, हिरासत में लेने और निर्वासित करने और साथ ही गिरफ्तार विदेशियों के निर्वासन के लिए प्रक्रियाओं के पालन के सम्बंध में चर्चा हुई।
संशोधित आदेश जिला मजिस्ट्रेटों को उन व्यक्तियों को भी संज्ञान लेने की अनुमति देता है, जिन्होंने एनआरसी से उनके बहिष्कार के खिलाफ, यह तय करने के लिए कि वे विदेशी हैं या नहीं, ट्रिब्यूनल में दावे दायर नहीं किए हैं।
उन लोगों को भी अवसर दिया जाएगा जिन्होंने अपने मामलों का संदर्भ लेते हुये ट्रिब्यूनल में दावे दायर नहीं किए हैं। उनकी नागरिकता साबित करने के लिए उन्हें नए सिरे से समन जारी किया जाएगा। असम में लगभग 4 लाख निवासी हैं जिन्होंने NRC के अंतिम प्रारूप में से अपने बहिष्कार के खिलाफ दावे दर्ज नहीं किए हैं।
07-06-2019: Ecologists have 596 reasons to cheer
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-life/ecologists-have-596-reasons-to-cheer/article27586479.ece
पारिस्थितिकीविदों के पास जयकार करने के 596 कारण
वैज्ञानिकों और वर्गीकरण वैज्ञानिकों (Scientists and taxonomists) ने वर्ष 2018 में भारत से वनस्पतियों और जीवों की 596 नई प्रजातियों का दस्तावेजीकरण किया है। खोजों का विवरण गुरुवार को बोटैनिकल सर्वे ऑफ इंडिया (BSI) और जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI) ने दो प्रकाशनों, यथा Plant Discoveries 2018 and Animal Discoveries 2018, में सार्वजनिक किया।
596 प्रजातियों में से, 372 जीवसंसार (311 अकशेरुकी और 61 कशेरुक) के अंतर्गत आती हैं। नई पहचान की गई 224 पौधों की प्रजातियों में बीज पौधे, टेरिडोफाइट्स, ब्रायोफाइट्स, कवक और लाइकेन शामिल हैं। लगभग 31% पौधों की प्रजातियों की खोज हिमालय में की गई थी। जीवों के मामले में, पश्चिमी घाट एक जैविक आकर्षण (biological hotspot) का केंद्र रहा, जहाँ से लगभग 50% प्रजातियाँ पाई गईं।
बीएसआई के निदेशक ए. ए. माओ के अनुसार “इस वर्ष खोजे गए पौधों में कई संभावित बागवानी, कृषि, औषधीय और सजावटी पौधों के करीबी जंगली रिश्तेदार शामिल हैं। खोजों में अमोमम (जंगली इलायची), साइकैड्स, रूबस (रास्पबेरी), सिजियम (जंगली जामुन), टर्मिनलिया, बाल्सम, ज़िंगिबर्स और सात पेड़ और 10 ऑर्किड से संबंधित पौधे शामिल हैं।‘’ उन्होंने कहा कि बीएसआई ने खोजों की पुष्टि करने के लिए आणविक डीएनए प्रौद्योगिकी और फ़ाइलोजेनी (molecular DNA technology and phylogeny) पर जोर दिया है।
ZSI के निदेशक कैलाश चंद्रा ने कहा कि डीएनए विश्लेषण जैसे आधुनिक टैक्सोनोमिक टूल ने मेंढकों और सरीसृपों की खोज में मदद की है। श्री चंद्र ने कहा, "इस साल खोजे गए 61 कशेरुक प्रजातियों में से सरीसृप (30 प्रजातियां) अधिक हैं।" मछलियों की 21 प्रजातियाँ, उभयचरों की नौ प्रजातियाँ और एक स्तनधारी उप-प्रजातियाँ भी पाई गईं।
केरल ने 59 प्रजातियों के साथ सबसे अधिक खोजें दीं। पश्चिम बंगाल, हिमालयी और तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों वाले राज्य में 38 और तमिलनाडु में 26 खोजें हुईं। इन नई खोजों के साथ, भारत में जीवों की प्रजातियों की अद्यतन सूची 1,01,681 हो गई है, जो दुनिया में सभी प्रजातियों का लगभग 6.49% है।
बीएसआई के प्रकाशन के प्रमुख एस.एस. दाश ने कहा कि देश में वनिस्पति की प्रजातियों की संख्या 49,441 हो गई है जो विश्व की सभी वनस्पतियों का 11.5% है। पिछले दस वर्षों में, बीएसआई ने 3,225 वनिस्पति की प्रजातियों की खोज दर्ज की है"।
खोजों के अलावा, जीवों की 139 प्रजातियों को नए रिकॉर्ड के रूप में भारत के जीवों की संख्या में जोड़ा गया। वनिस्पति के संदर्भ में, 193 वनस्पतियों को नए रिकॉर्ड के रूप में भारत की वनस्पतियों में जोड़ा गया। पिछले साल, वनिस्पति और जीवों की 539 नई प्रजातियों की खोज की गई थी, जिसमें 300 प्रजातियों के जीव और वनिस्पतियों की 239 प्रजातियां और उप-प्रजातियां शामिल थीं।
07-06-2019: No surprises
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कोई आश्चर्य नहीं
भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा घोषित दूसरी द्वैमासिक मौद्रिक नीति से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। 25 आधार बिंदु (0.25 प्रतिशत अंक) में कटौती की व्यापक रूप से उम्मीद की गई थी, और आरबीआई ने यह कटौती की। अर्थव्यवस्था में मौजूद गतिवान मंदी को देखते हुए क्या 50 बेसिस प्वाइंट की कटौती आवश्यक थी, विशुद्ध रूप से एक दार्शनिक प्रश्न है। मुद्रास्फीति अभी 4% के न्यूनतम मानदंड (बेंचमार्क आंकड़े) के अधीन थी, अत: भारतीय रिज़र्व बैंक से संभवतः एक आश्चर्यचकित करने वाली घोषणा की अपेक्षा थी, परन्तु बैंक रूढ़िवादी रास्ता चुना। हो सकता है कि आवश्यक्ता पड़ने पर आगामी नीति में दर में और अधिक कटौती के मद्देनज़र अभी कमी की दर को न्यून रखने पर विचार किया गया हो। अगर अगस्त तक अर्थव्यवस्था अपनी सुस्ती से उबर नहीं पाती है, तो दायित्व आखिरकार, पुन: आरबीआई पर स्थानान्तरित हो जाएगा। इतने से स्पष्ट है कि नवीनतम नीति में यह इंगित करने के लिए पर्याप्त है कि आरबीआई का ध्यान अब विकास और संवृद्धि पर है। आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास के प्रेस कॉन्फ्रेंस में 'तटस्थता' से 'उदार और समझौतापरक’ का रुख बदलने का बयान कि प्रणालीगत तरलता सुनिश्चित करना केंद्रीय बैंक के लिए एक प्राथमिकता रहेगी, और मौजूदा तरलता प्रबंधन ढांचे की समीक्षा के लिए एक आंतरिक कार्य समूह का गठन, सभी स्पष्ट रूप से एक ऐसे केंद्रीय बैंक की ओर इंगित करता है जो न केवल अर्थव्यवस्था में प्रमुख हितधारकों की मांगों को सुन रहा है, बल्कि उन पर कार्रवाई भी कर रहा है।
एक क्षेत्र जहां आरबीआई को कुछ काम करना है, वह दरों के प्रसारण में है। अपने स्वयं की स्वीकरोक्ति द्वारा, फरवरी और अप्रैल में आरबीआई द्वारा प्रभावित संचयी 50 आधार अंकों की दर में से केवल 21 को ही बैंकों द्वारा उधारकर्ताओं को हस्तांतरित किया गया है। कम से कम पिछले कुछ महीनों में बैंकों का बहाना यह था कि तरलता तंग थी और इसलिए जमा दरों में कटौती नहीं की जा सकती थी। हालांकि, गत सप्ताह में तरलता में काफी सुधार हुआ है, और इसके अलावा नई सरकार खजाने में थोड़ी ढील दे दी है। पूरी तरह से कटौती का आगे हस्तांतरित नहीं करने के लिए बैंकों के पास कोई बहाना नहीं हो सकता है। आरटीजीएस / एनईएफटी (रियल टाइम ग्रॉस सेटलमेंट सिस्टम / नेशनल इलेक्ट्रॉनिक फ़ंड ट्रांसफर) लेनदेन पर लगने वाले शुल्क में छूट दिये जाने सम्बंधी आरबीआई के निर्णय का स्वागत है, बशर्ते कि यह सुनिश्चित करें कि बैंक ग्राहकों को इससे जनित लाभ का हस्तांतरित करदें। केंद्रीय बैंक ने बैंकों के लिए बेसल मानदंडों (Basel norms) के तहत ‘’लाभ उठाने के अनुपात (leverage ratio)’’ में कमी जैसे उपायों को भी प्रस्तावित किया है, जो उनके उधार देने योग्य संसाधनों को बढ़ाएगा। इस वित्त वर्ष के लिए अनुमानित विकास दर अप्रैल में अनुमानित 7.2% से 7% तक कम की गई है, और पहली छमाही की वृद्धि 6.4-6.7% अनुमानित है, जो कि अर्थव्यवस्था में वर्तमान रुझानों को देखते हुए महत्वाकांक्षी प्रतीत होती है। आरबीआई के अपना काम पूरा करने के साथ ही, सबका ध्यान वित्त मंत्रालय की ओर स्थानांतरित हो गया है। सुधारों के अगले दौर में सरकार से जबरदस्त उम्मीदें हैं, क्योंकि यह एक मजबूत जनादेश है। ताकि अर्थव्यवस्था को फिर से गतिपूर्ण स्थिति में में लाने के लिऐ पूरा दारोमदार अब बजट पर है, जो 5 जुलाई को पेश किया जाना है।
07-06-2019: Methane on Mars
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मंगल ग्रह पर मीथेन
पृथ्वी के वायुमंडल में मीथेन की अधिकांश मात्रा की एक जैविक उत्पत्ति (दलदल में पौधों का अपघटन, धान के खेतों से उत्सर्जन, दीमक और गायों और भेड़ों का उत्सर्जन, जीवाश्म ईंधन के जलने आदि) है, इसलिए मंगल पर मीथेन की खोज वैज्ञानिकों को उत्साहित कर सकती है, जो लाल ग्रह पर जीवन के संकेत खोज रहे हैं। लेकिन वहां के मीथेन को एक भूगर्भीय प्रक्रिया द्वारा भी निर्मित हो सकने की संभावना है, जिसे सर्पिनिस्म (serpentinisation) के नाम से जाना जाता है और जिसमें उष्मा और तरल पानी दोनों की आवश्यकता होती है। जहां पानी है वहां जीवन की संभावना है। इसलिए मंगल पर मीथेन की खोज विभिन्न संभावनाओं को खोलती है और इसलिए यह एक बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
06.06.2019: Needed: a solar manufacturing strategy
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-opinion/needed-a-solar-manufacturing-strategy/article27528726.ece
जरूरत है: एक सौर विनिर्माण रणनीति की
भारत ने पिछले कुछ वर्षों में सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता निर्माण में महत्वपूर्ण प्रगति की है। 2014 के बाद से प्रधान मंत्री द्वारा इसे प्रमुखता दिये जाने के कारण सौर ऊर्जा स्थापना को एक नई प्रेरणा मिली है। सौर ऊर्जा की इकाई लागत में कमी आई है, और ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के सापेक्ष सौर ऊर्जा बहुत शीघ्रता से प्रतिस्पर्धी की भूमिका में आ गई है। 26 मई, 2014 को 2,650 मेगावाट से भारत ने अपनी सौर ऊर्जा क्षमता विस्तार में आठ गुना की वृद्धि करते हुये 31 जनवरी, 2018 को 20 गीगावॉट और 31 मार्च, 2019 को 28.18 गीगावॉट कर दिया। सरकार ने 2022 तक 20 गीगावॉट की सौर क्षमता का प्रारंभिक लक्ष्य रखा था जो नियत समय-सीमा से चार वर्ष पहले ही प्राप्त कर लिया गया। वर्ष 2015 में (पुनर्निधारण करते हुये), वर्ष 2022 तक 100 गीगावॉट सौर क्षमता का लक्ष्य निर्धारित किया गया।
यह त्वरित प्रगति पहले की जानी चाहिए थी। यद्यपि भारत ऊर्जा की कमी वाला देश है, फिर भी अधिकांश वर्ष धूप से समृद्ध रहता है। सौर ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए इसे सौर पैनल निर्माण में बहुत समय पहले नेतृत्व ले लेना चाहिए था। सौर संयंत्र स्थापना के नवीन नीति का केन्द्रबिन्दु होने के बावजूद, भारत अभी भी सौर पैनल निर्माता नहीं है। जिस तरह भारत में आर्थिक सुधार शुरू होने से पहले कोई समग्र औद्योगिक नीति नहीं थी, सौर पैनल निर्माण सुनिश्चित करने के लिए कोई वास्तविक योजना नहीं है। 1991 में जीडीपी में सभी विनिर्माण का हिस्सा 16% था; यह 2017 में भी वही है। सौर ऊर्जा संभाव्यता एक विनिर्माण अवसर प्रदान करती है। सरकार इसकी एकमात्र निकटवर्ती खरीदार है। वैश्विक सौर उद्योग द्वारा भारत को सबसे भरोसेमंद और आशाजनक बाजारों में माना जाता है, लेकिन कम लागत वाले चीनी आयात ने देश में सौर प्रौद्योगिकी आपूर्तिकर्ताओं को विकसित करने की देश की महत्वाकांक्षाओं को शिथिल कर दिया है। चीन से ज्यादातर आयात जो 2014 में बिक्री का 86% था, 2017 में 90% से अधिक हो गया।
आयात के विकल्प निर्मित करने के लिए मानव क्षमताओं, तकनीकी क्षमताओं और वित्त के रूप में पूंजी की आवश्यकता होती है। प्रथम दो क्षमताओं पर सौर फोटोवोल्टिक पैनल विनिर्माण की आपूर्ति श्रृंखला निम्नानुसार है: सिलिकेट्स (रेत) से सिलिकॉन उत्पादन; सौर ग्रेड सिलिकॉन सिल्लियों का उत्पादन; सौर वेफर विनिर्माण; और पीवी मॉड्यूल संयोजन (assembly)। इन प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक पूंजीगत व्यय और तकनीकी जानकारी पहली वस्तु से लेकर अंतिम तक कम होती जाती है, अर्थात, मॉड्यूल संयोजन की तुलना में सिलिकॉन उत्पादन अधिक पूंजी-गहन है। अधिकांश भारतीय कंपनियां केवल मॉड्यूल संयोजन या वेफर निर्माण और मॉड्यूल असेंबली में लगी हुई हैं। सिलिकॉन उत्पादन में कोई भी भारतीय कंपनी शामिल नहीं है, हालांकि कुछ लोग इसके लिए प्रयास कर रहे हैं। नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार (2018), भारत में वार्षिक सौर सेल (cell) विनिर्माण क्षमता लगभग 3 गीगावॉट है जबकि औसत वार्षिक मांग 20 गीगावॉट है। अंतर की पूर्ति सौर पैनलों के आयात से होती है।
इसलिए हम इस क्षेत्र के घरेलू खिलाड़ियों को, किसी भी तरह, न्यून अवधि में आयातित सामग्री का विकल्प निर्मित करते नहीं देख सकते हैं। जबकि सुरक्षा शुल्क लगने से अब लागत के मामले में आयातित सामग्री का मूल्य स्थानीय रूप से बनाए गए पैनलों के बराबर है, घरेलू क्षेत्र को प्रभावी करने के लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, इसे आपूर्ति श्रृंखला में नीचे तक जाना होगा और इनपुट घटकों को आयात करने के बजाय स्थानीय स्तर पर बनाना और मॉड्यूल्स को एक साथ रखना होगा। इसका एक सरल मार्ग सार्वजनिक खरीद है। सरकार अभी भी सौर ऊर्जा संयंत्रों के लिए इस शर्त के साथ बोली लगाने के लिए स्वतंत्र है कि इन्हें पूरी तरह से भारत में बनाया जाए। यह विश्व व्यापार संगठन की किसी भी प्रतिबद्धता का उल्लंघन नहीं करेगा।
चीन का लागत लाभ (China’s cost advantage) तीन मोर्चों की क्षमताओं से प्राप्त होता है। पहली है: मुख्य सक्षमता (core competence)। इससे पहले कि इस शताब्दी के अंत आते आते वे सौर कोशिकाओं का निर्माण करते, छह सबसे बड़े चीनी निर्माताओं के पास अर्धचालक (semiconductors) में मुख्य तकनीकी क्षमता थी। कंपनियों को नई तकनीकों को सीखने में और फिर क्रियान्वयन में समय लगता है। जब चीन में सौर उद्योग उन्नति करने लगा, चीनी कंपनियों के पास पहले से ही तकनीकी जानकारी थी। विशेषज्ञों के सुझाव अनुसार मानव और तकनीकी विद्धता अवस्था पांच से दस वर्ष हो सकती है। जब भारत में सौर उद्योग 2011 से बढ़ना शुरू हुआ, भारतीय कंपनियों के पास अर्धचालक प्रशिक्षण की कोई पृष्ठभूमि नहीं थी। एक निर्धारित औद्योगिक नीति के अंश के रूप में राज्य सरकारों को भविष्य के लिए इस क्षमता को विकसित करने के लिए अर्धचालक उत्पादन का आलम्बन और प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।
चीन के लिए लागत लाभ का दूसरा स्रोत सरकार की नीति से आता है। चीनी सरकार ने भूमि अधिग्रहण, कच्चे माल, श्रम और निर्यात, आदि के लिए अनुदान दिया है। इस नीति का कोई भी मेल भारत सरकार की तत्सम्बंध में किसी नीति के साथ नहीं है। शायद इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है सरकार द्वारा दीर्घ अवधि तक क्रय करने की प्रतिबद्धता - जिसके बिना सौर ऊर्जा उपकरणों के उत्पादन के चार चरणों में प्रत्येक के लिए डिजाइन और विनिर्माण में किया गया निवेश व्यर्थ हो जाएगा।
तीसरा है: पूंजी की लागत। भारत में ऋण की लागत (11%) एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सबसे अधिक है, जबकि चीन में यह लगभग 5% है।
पंद्रह साल पहले, चीन भी कोरिया या जर्मनी से आयात पर निर्भर रह सकता था; वह नहीं रहा। आयात पर निर्भर रहने से भारत के लिए केवल अल्पकालिक लाभ होता है। वर्तमान दृष्टिकोण का एक निरंतरता का अर्थ है कि भारत का ऊर्जा क्षेत्र अपने रक्षा उद्योग के समान स्थिति में होगा, जहाँ भारी मात्रा में पैसा हथियार खरीदने में खर्च किया गया है - इतना कि भारत वर्षों से रक्षा उपकरणों का दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आयातक रहा है।
सौर पैनल विनिर्माण क्षेत्र में, भारत सरकार इक्विटी के रूप में 100% विदेशी निवेश की अनुमति देती है और यह स्वचालित अनुमोदन योग्य है। सरकार विदेशी निवेशकों को बिल्ड-ओन-ऑपरेट आधार पर अक्षय ऊर्जा-आधारित बिजली उत्पादन परियोजनाओं को स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। लेकिन चीनी सरकार स्पष्ट रूप से आक्रामक रुख अपना रही है, जैसा कि सरकार की नवीकरणीयों के प्रति प्रतिबद्धता है, भारत में सौर ऊर्जा की मांग लगातार बढ़ रही है, । 2018 में, चीन ने डेवलपर्स को वित्तीय सहायता में कटौती की और नई सौर परियोजनाओं के लिए मंजूरी रोक दी। फलस्वरूप, चीनी उत्पादकों भारत को निर्यात किया जाना निरन्तर रखते हुये अपनी विनिर्माण संयंत्र क्षमता उपयोग को बरकरार रखने के लिए कीमतों में कटौती करेंगे।
दूसरे शब्दों में, चीनी रणनीति भारत द्वारा भारत के भीतर सम्पूर्ण आपूर्ति श्रृंखला क्षमता विकसित करने के लिए किसी भी योजनाबद्ध प्रयास को कम करने का प्रयास करेगी ताकि चीन से आयात पर निर्भरता बनी रहे। विरोध स्वरूप, भारत को एक सौर विनिर्माण रणनीति की आवश्यकता है, शायद मोटर वाहन मिशन योजना (2006-2016) की तरह, जिसे भारत को दोपहिया, तिपहिया, चार पहिया और लॉरियों के सबसे बड़े विश्व निर्माताओं में से एक बनाने का श्रेय दिया जाता है। यह ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में गतिपूर्ण बेहतर शिक्षित युवाओं के लिए रोजगार सृजन की रणनीति भी होगी।
05-06-2019: For more inclusive private schools
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अधिक समावेशी निजी स्कूलों के लिए
भारत में, संविधान (छयासीवॉ संशोधन) अधिनियम, 2002 द्वारा अनुच्छेद 21A को सम्मिलित करके शिक्षा के अधिकार को एक मौलिक अधिकार बना दिया गया था। इसे पश्चातवर्ती ‘शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009’ के अधिनियमन अन्तर्गत सक्षम किया गया था। इसका कार्यान्वयन अधिकांश राज्यों के लिए एक चुनौती रहा है क्योंकि उनके पास यह स्वातन्त्र्य (discretion) है कि यह अधिनियम किस प्रकार लागू किया जाना है। इस प्रकार, प्रत्येक नए शैक्षणिक वर्ष के प्रारंभ होने पर, आरटीई अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों से संबंधित बड़ी संख्या में प्रश्न और जटिलताऐं जनित होती हैं, जिनका समाधान किया जाना चाहिए।
स्कूल की जवाबदेही, मूल्यांकन मानकों और शिक्षक प्रशिक्षण सहित RTE अधिनियम अमेरिका के No Child Left behind Act से बहुत समानताऐं रखता है। यू.एस. की तरह, भारत में भी राज्यों को इस अधिनियम के कार्यान्वयन में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्रता दी गई है। हालाँकि, प्रत्येक वर्ष उत्पन्न होने वाली एक समस्या समाज के वंचित वर्गों तक अनिवार्य पहुँच है। अधिनियम की धारा 12 (1) (सी) में सभी निजी स्कूलों (अल्पसंख्यक स्कूलों के अतिरिक्त) को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग, अर्थात वे परिवार जहॉ वार्षिक आय रूपये 2 लाख से कम है, और अन्य वंचित समूह जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और शारीरिक रूप से विकलांग को 25% सीटों को आवंटित करने का आदेश देती है। राज्य सरकार इस प्रावधान के तहत प्रवेश दिये गये छात्रों के लिए इन स्कूलों की उस दर पर प्रतिपूर्ति करेगी, जो राज्य के नियमों द्वारा निर्धारित की जाएगी।
धारा 12 (1) (सी) के तहत प्रवेश की प्रक्रिया निर्दोष एवं पूर्ण होने से कहीं परे है। यह देश के कई शहरों में इस सम्बंध में जनित बड़ी संख्या में रिक्तियों से स्पष्ट होता है। उदाहरण के लिए, आरटीई अधिनियम के तहत प्रवेश के अंतिम दिन, पहली लॉटरी में महाराष्ट्र में 20,835 पद खाली थे।
तमिलनाडु, जो भारत में शैक्षिक प्रगति के मामले में हमेशा अग्रणी रहा है, ने धारा 12 (1) (सी) के कार्यान्वयन में कुछ प्रगति की है। इसने एचआईवी पीड़ित बच्चों और ट्रांसजेंडरों को शामिल करके "वंचित वर्ग" के दायरे को बढ़ाया है। राज्य द्वारा एक केंद्रीयकृत डेटाबेस बनाया गया है जहां लोग राज्य के ऐसे सभी मैट्रिकुलेशन (राज्य बोर्ड) स्कूलों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं जो उनके निवास के 1 किमी की सीमा में स्थित हैं। तमिलनाडु सरकार द्वारा एक और अधिसूचना जारी की गई है जिसके अनुसार तमिलनाडु राज्य बोर्डों के अलावा अन्य बोर्डों से संबद्ध सभी स्कूलों को आरटीई कार्यान्वयन के लिए राज्य के स्कूल शिक्षा निदेशक के नियंत्रण में लाया गया है।
हालाँकि, कई मुद्दे बने हुए हैं। मुख्य चिंताओं में से एक, राज्य द्वारा स्थापित स्कूल डेटाबेस पर कई सीबीएसई स्कूलों की अनुपस्थिति है। जीआईएस टैगिंग के उपयोग के बावजूद, कई माता-पिता शिकायत करते हैं कि नज़दीक के स्कूलों की पहचान करने में व्यवस्था दोषपूर्ण है। वित्तीय समस्याओं के कारण व्यवस्था पर और आघात हो रहा है - कई स्कूल (विद्यार्थियों से) पाठ्यपुस्तकों और यूनिफॉर्म के लिए पैसा इकट्ठा करते हैं, हालांकि यह राज्य द्वारा निर्धारित किये गये शुल्क का हिस्सा है।
यह एक श्रृंखला प्रतिक्रिया है: केंद्र इस कार्यक्रम के लिए 70% धनराशि जारी करता है, जिसमें प्राय: विलम्ब होता है। तमिलनाडु को लंबित सभी आरटीई निधियों को जारी करने के लिए केंद्र को निर्देश देने के लिए मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै बेंच के समक्ष हाल ही में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। सूचना का अधिकार (आरटीआई) याचिका में पाया गया कि पिछले सात वर्षों में, तमिलनाडु सरकार ने रुपये 368.49 करोड़ राशि आवंटित की है, जबकि केंद्र सरकार ने केवल रुपये 27.8 करोड़ की प्रतिपूर्ति हेतु आवंटन किया गया। इससे राज्य के लिए और तदानुसार स्कूलों के लिए वित्तीय संकट पैदा होता है।
ऑनलाइन प्रणाली को क्रियान्वयित करने से पारदर्शिता सुनिश्चित हुई है, तमिलनाडु सहित कई राज्यों में, के लिए आरटीई अधिनियम के अनुसार प्रबंधन समिति संसूचित नहीं की गई है। आरटीई नियम यह भी कहते हैं कि खाली सीटें सितंबर में फिर से भरी जा सकती हैं लेकिन सरकारों ने इस सम्बंध में कोई स्पष्ट सार्वजनिक घोषणा नहीं है।
‘1 किमी के दायरे’ की कसौटी पर भी कई शिकायतें आई हैं, खासकर ग्रामीण निवासियों के लिए जिनके निवास के नज़दीक कोई प्राईवेट (निजी) स्कूल नहीं है। यह मानदंड अंततः शैक्षिक परिणामों में ग्रामीण-शहरी विभाजन को और अधिक बढ़ाएगा। केरल नियम अधिक प्रगतिशील हैं क्योंकि वे क्षेत्रीय सीमाओं सम्बंधी विवशताओं को मान्य करते हैं और राज्य ने प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त व्यवस्था के प्रावधान किए हैं।
निजी स्कूलों में आरटीई अधिनियम की रिक्तियों के लिए प्रवेश प्रक्रिया की व्यवस्था बहुत संकीर्ण और जटिल है। हजारों रिक्तियों के बावजूद, यह अनेकों माता-पिता के लिये समय सीमा खो देने का कारण बनता है। प्रवेश की प्रक्रिया सभी स्कूल बोर्डों के लिए एकल-बिंदु खिड़की के माध्यम से ऑनलाइन की जानी चाहिए, जिसमें कंप्यूटर कियोस्क उन माता-पिता की सहायता करेंगे जो ऑनलाइन फॉर्म भरने में सक्षम नहीं हैं। 25% कोटा के अन्तर्गत प्रत्येक स्कूल में उपलब्ध सीटों की संख्या की लाइव जानकारी के साथ एक मोबाइल एप्लिकेशन बनाया जाना चाहिए। राज्य शिक्षा विभाग द्वारा प्रत्येक वर्ष समस्त स्कूलों के लिए एक आरटीई अनुपालन ऑडिट का क्रियान्वयन किया जाना चाहिए। निजी स्कूलों को दी जाने वाली कोई भी सहायता स्कूल द्वारा अनुपालन की उपलबिध्यों के स्तरों से सम्बद्धहोनी चाहिए। कई स्कूल 25% कोटा का पालन नहीं करते हैं। लगातार उल्लंघन पाये जाने पर इन स्कूलों को दंडित किया जाना चाहिए। प्रत्येक स्कूल को प्रमुखता से यह घोषित करना चाहिए कि यह स्कूल आरटीई अनुपालित (RTE compliant) है - और प्रवेश प्रक्रिया, समय सीमा सहित, स्कूल परिसर में स्पष्ट रूप से प्रदर्शित की जानी चाहिए। सरकारी पक्ष के लिये भी धनराशि को समयबद्ध तरीके से जारी करने की आवश्यकता है, ताकि यह सभी रिक्तियों को भरने के लिए स्कूलों को आत्मविश्वास को प्रेरित करे।
आरटीई अधिनियम की धारा 12 (1) (सी) समावेशीकरण (inclusion) की आवश्यकता को समझती है, और इस लक्ष्य के लिए योगदान करने के लिए सभी हितधारकों पर स्पष्ट रूप से जिम्मेदारी स्थापित करती है। फलस्वरूप, निजी स्कूल, जो अक्सर विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के द्वीप बन जाते हैं, अब अधिक समावेशी हो जाएंगे। इस समाजीकरण से समाज के सभी वर्गों को लाभ होगा क्योंकि हम अपने सामाजिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने बच्चों को सिर्फ बेहतर शिक्षार्थी नहीं बल्कि बेहतर इंसान बनाऐंगे।
05-06-2019: Fine-tuning the education policy
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-opinion/fine-tuning-the-education-policy/article27475503.ece
शिक्षा नीति में सुधार
तैयार करने में लगभग चार साल लगने के बाद, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2019 का मसौदा (the draft National Education Policy, 2019), समस्त हितधारकों से 30 जून तक उनके मत की अपेक्षा के साथ, सार्वजनिक क्षेत्र में है। टी.एस. सुब्रह्मण्यम समिति की रिपोर्ट और मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) से निविष्टि (inputs) ग्रहण करते हुये के. कस्तूरीरंगन समिति ने एक दस्तावेज तैयार किया है जो वास्तविक रूप में व्यापक, दूरदर्शी और जमीनी है।
सम्पूर्ण जीवन की शिक्षा चार स्तंभों पर आधारित है - जानने के लिए सीखना, कार्य करने के लिये सीखना, साथ रहने के लिये सीखना और होने के लिये सीखना (learning to know, learning to do, learning to live together and learning to be) - इस विचार ने समिति को शिक्षा क्षेत्र के हर पहलू, अर्थात स्कूल, उच्च, व्यावसायिक और वयस्क शिक्षा, को सम्मिलित करने के लिए प्रेरित किया है। इसमें व्यावसायिक शिक्षा के संपूर्ण विस्तार - इंजीनियरिंग, चिकित्सा, कृषि, कानून आदि शामिल हैं। यह दस्तावेज शिक्षा नीति के प्रस्तावों के वैज्ञानिक औचित्य की व्याख्या करता है और सुझाव देता है कि प्रस्तावों का राज्य और केंद्रीय स्तरों पर व्यवहार में किस प्रकार लागू किया जा सकता है।
नीति प्रारूप शिक्षा क्षेत्र के सभी पहलुओं में पुनर्निर्माण की कोशिश करती है और नए साहसी विचारों का सुझाव देने से नहीं कतराती है।
एक ऐसा ही विचार है जिसके अनुसार स्कूली शिक्षा में 3-18 वर्ष के बच्चों को समाहित करना है [शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम अन्तर्गत वर्तमान के 6-14 वर्षों के बजाय], तीन साल की “प्रारंभिक बचपन की देखभाल और शिक्षा (ईसीसीई, ECCE = Early Childhood Care And Education)” के अन्तर्गत और चार वर्ष माध्यमिक शिक्षा के अन्तर्गत। तंत्रिका विज्ञान (neuroscience) , द्वारा प्रदायति प्रमाण के आधार पर कि छह वर्ष की आयु से पहले बच्चे के संचयी मस्तिष्क का 85% से अधिक विकास हो जाता है और आंगनवाड़ियों में 'स्कूल की तैयारी' वस्तुत: शैक्षिक पहलुओं पर प्रकाश डालती है, ईसीसीई उस आयु समूह के बच्चों के लिए खेल और खोज-आधारित शिक्षा देने की सुविधा प्रदान करेगा।
एक अन्य नवाचार नेशनल ट्यूटर प्रोग्राम और रेमेडियल इंस्ट्रक्शनल ऐड्स (Remedial Instructional Aides Programme) कार्यक्रमों जैसी पहलों के माध्यम से 'सार्वभौमिक मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मकता (universal foundational literacy and numeracy)' को प्राप्त करना है। स्कूल परिसरों का परिचय, लचीलेपन की अनुमति देने के लिए मॉड्यूलर बोर्ड परीक्षाओं की व्यवस्था, वंचित क्षेत्रों में विशेष शिक्षा क्षेत्र का स्थाप्यकरण, व्यवस्था में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका की पहचान, शिक्षक की शिक्षा को विश्वविद्यालय प्रणाली में जगह देना और नई भाषाओं को सीखने के महत्व पर बल देना इस दस्तावेज़ की प्रमुख अनुशंसाओं में से कुछ हैं।
उच्च शिक्षा के लिए आगे का रास्ता भी साहसिक प्रस्तावों द्वारा चिह्नित किया गया है। इसका उद्देश्य 2035 तक सकल नामांकन अनुपात (Gross Enrolment Ratio) को 25% से 50% तक दोगुना करना है और विश्वविद्यालयों को शोध का केंद्र बनाना है (टीयर I विश्वविद्यालयों / संस्थानों के लिए जो मुख्य रूप से अनुसंधान और उनमें से कुछ शिक्षण के लिए समर्पित हैं, टीयर 2 विश्वविद्यालय शिक्षण और कुछ शोध के लिए समर्पित हैं और टियर 3 संस्थानों में मुख्य रूप से कॉलेज शामिल हैं जिन्हें धीरे-धीरे डिग्री प्रदाय करने वाले स्वायत्त संस्थानों में परिवर्तित किया जाना है)।
यह शिक्षा नीति उदार कलाओं (यह चार साल के पाठ्यक्रमों की पेशकश करने वाले पांच भारतीय इंस्टीट्यूट ऑफ लिबरल आर्ट्स की स्थापना की सिफारिश करती है) और आधुनिक व शास्त्रीय भाषाओं का अध्ययन (यह पाली, प्राकृत और फारसी के लिए राष्ट्रीय संस्थानों की स्थापना की सिफारिश करता है) के निर्णायक महत्व को पहचानती है । यह विनियमन, वित्त पोषण, मानक निर्धारण और प्रत्यायन की मान्यता के लिए अलग-अलग संस्थानों, एक राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (National Research Foundation) और एक राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (National Education Commission) का प्रस्ताव करता है। दिलचस्प बात यह है कि 50% छात्रों के लिए व्यावसायिक शिक्षा को स्कूल और उच्च शिक्षा के साथ एकीकृत करने की संस्तुति की गई है।
ये प्रगतिशील विचार हैं, लेकिन उनके कार्यान्वयन में बाधाएं हैं। अधिकतर बाधाऐं वित्त-पोषण की आवश्यकताओं और शासकीय संरचना (governance architecture) से संबंधित हैं।
सबसे पहले, जो सिफारिश की गई है वह है सकल घरेलू उत्पाद के 6% तक सार्वजनिक वित्त-पोषण को दोगुना करना और शिक्षा पर समग्र सार्वजनिक व्यय को वर्तमान के 10% से 20% तक बढ़ाना। यह वांछनीय है लेकिन यह देखते हुए कि अधिकांश अतिरिक्त वित्त-पोषण राज्यों से आना है, निकट भविष्य में संभव नहीं प्रतीत होता है, । हालांकि निजी क्षेत्र को शामिल करते हुए अभिनव वित्तपोषण योजनाएं प्रस्तावित की गई हैं, उन योजनाओं को कैसे आकार दिया जाएगा, यह देखा जाना बाकी है।
दूसरा, पाली, प्राकृत और फारसी भाषा के लिए नए संस्थानों की स्थापना किया जाना एक अभिनव विचार प्रतीत होता है, क्या मैसूरु में केंद्रीय भारतीय भाषाओं के संस्थान (Central Institute of Indian Languages) को पुष्ट और शक्तिशील नहीं किया जाना चाहिए और क्या इन भाषाओं की देखभाल करने के लिए इसे विस्तृत जनादेश वाले विश्वविद्यालय में अपग्रेड भी किया जाना चाहिये?
तीसरा, प्री-स्कूल बच्चों को शामिल करने के लिए आरटीई अधिनियम के तहत कवरेज का विस्तार करना बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता और शिक्षकों की रिक्तियों को ध्यान में रखते हुए, शायद धीरे-धीरे क्रियान्वयित हो। अधिनियम का संशोधन शायद कुछ समय के लिए प्रतीक्षा कर सकता है।
चौथा, प्रधानमंत्री के नियंत्रण वाले राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान की स्थापना और एमएचआरडी (मानव संसाधन मंत्रालय) द्वारा इसके प्रशासकीय नियंत्रण का विचार कई विभागों के दृष्टिकोण और कार्यक्रमों को एकीकृत करने के लिए महत्वपूर्ण है। हालांकि, यह कई प्रशासनिक समस्याओं और संभावित विभागीय अर्न्तविरोधों से भरा हुआ है। एक कॉमन प्रशासनिक नियंत्रण में चिकित्सा या कृषि या कानूनी शिक्षा लाने सम्बंधी विचार को कठोर विरोध के विरोध की संभावना है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक, 2017 को क्या होने जा रहा है?
पांचवां, राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामक प्राधिकरण के अन्तर्गन विनियमन का विचार किया जा रहा है, सामान्य शिक्षा परिषद (General Education Council) के तहत मानक स्थापित करने और उच्च शिक्षा अनुदान परिषद (Higher Education Grants Council) के तहत वित्त पोषण के लिए एक पुनरीक्षण की आवश्यकता हो सकती है ताकि भारतीय उच्च शिक्षा आयोग के साथ वर्तमान विधेयक का एकीकरण (सिंक्रनाइज़ेशन) हो सके। इसके अलावा, नीति प्रारूप इंस्टीट्यूशन्स ऑफ एमिनेंस (Institutions of Eminence) और उच्च शिक्षा अनुदान एजेंसी (Higher Education Funding Agency) जैसी संस्थाओं पर खामोश है।
अंत में, जैसा कि हाल ही में देखा गया है, भाषा के मुद्दों को उनके भावनात्मक तत्व के मद्देनजर संवेदनशील रूप से संभाला जाना चाहिए। विषय और मजमून की भावना को समझे बिना अक्सर विरोध किया जाता है।
वित्त और संस्थागत संरचनाओं के बारे में विवरण मंत्रिमंडल सचिव की अध्यक्षता वाली एक अंतर-विभागीय समिति द्वारा शीघ्र अतिशीघ्र निर्धारित किये जाने चाहिए। यह सभी कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तियों के लिए रिपोर्ट का अध्ययन करने और नीति क्रियान्वयन हेतु सर्वश्रेष्ठ मार्ग सुझाने का समय है। यदि राजनीतिक नेतृत्व इसका समर्थन करता है, तो नीति का कार्यान्वयन हमारे राष्ट्र का रूपान्तरण कर देगा।
05-06-2019: The immediate neighborhood
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निकटतम पड़ोस
सरकार ने 30 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में दूसरी बार पड़ोसी देशों के नेताओं को आमंत्रित करके "नेबरहुड फर्स्ट" (Neighborhood First = पड़ोसी प्रथम) की अपनी रणनीति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। और इसी मुद्दे (पड़ोसी प्रथम) की उपयुक्तता इस सप्ताह जारी रहेगी जब वह मालदीव और श्रीलंका के लिए इस कार्यकाल में अपनी पहली यात्रा करेंगे, कुछ ऐसा कार्य, जो सभी भारतीय प्रधानमंत्रियों के लिए परंपरा बन गया है।
पहली (2014) और दूसरी बार (2019) अपने पदभार ग्रहण करने के आयोजन में श्री मोदी द्वारा दिये गये निमंत्रण के बीच स्पष्ट अंतर यह है कि 2014 में इस आयोजन के लिये आठ सदस्यीय दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) को न्यौता भेजा गया, जबकि 2019 में उन्होंने सात सदस्यीय “बिम्स्टेक” अर्थात ''बंगाल की खाड़ी पहल बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग'' (BIMSTEC = Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation) के नेताओं को आमन्त्रित किया। बंगाल की खाड़ी की भौगोलिक स्थिति के कारण BIMSTEC में, सार्क (SAARC) के तीन सदस्यों अफगानिस्तान, पाकिस्तान और मालदीव को छोड़कर, सार्क के पांच सदस्य (बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल, श्रीलंका) और दो अन्य देश म्यांमार और थाईलैंड शामिल हैं।
हालाँकि, इस बात का बहिर्वेशन (to extrapolate) करने के लिए कि बिम्सटेक ने सार्क की जगह ले ली है, या यह कि मोदी सरकार सार्क की कब्र के ऊपर बिम्सटेक की नींव का निर्माण कर रही है, दोनों ही इन संगठनों के संस्थापक सिद्धांतों के विपरीत और तर्कविरूद्ध होगा। सार्क, एक संगठन के रूप में, ऐतिहासिक और समकालीन रूप से देशों की दक्षिण एशियाई पहचान को दर्शाता है। यह प्राकृतिक रूप से बनाई गई भौगोलिक पहचान है। इसी प्रकार समान रूप से, सार्क सदस्य देशों में एक सांस्कृतिक, भाषाई, धार्मिक और उभयनिष्ठ आहार के संबंध है जो दक्षिण एशिया को परिभाषित करते हैं। इसलिए, जिस तरह नदियां, जलवायु परिस्थितियां स्वाभाविक रूप से एक दक्षिण एशियाई देश से दूसरे देश में बहती हैं, उसी तरह फिल्में, कविता, हास्य, मनोरंजन और भोजन भी एक सार्क देश से दूसर देश में यात्रा करते हैं।
परिणामस्वरूप, 1985 के बाद, जब सार्क चार्टर पर हस्ताक्षर किए गए थे, संगठन ने कई क्षेत्रों में उभयनिष्ठ मापदंड विकसित किये हैं, यथा: कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, परिवहन और पर्यावरण। प्रत्येक क्षेत्र ने सहयोग में सामान्य लेकिन स्थायी वृद्धि देखी है। उदाहरणार्थ, 2010 से, जब दिल्ली में दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय (South Asian University) शुरू हुआ, तो लगभग 170 सीटों के लिए आवेदकों की संख्या दोगुनी से अधिक हो गई। सार्क की सबसे बड़ी विफलता, हालांकि, राजनीतिक क्षेत्र से आती है, जहां मुख्य रूप से भारत-पाकिस्तान तनाव के कारण, सार्क राज्य प्रमुख 34 वर्षों में केवल 18 बार मिले हैं; और काठमांडू में आखिरी शिखर सम्मेलन हुए भी पांच साल हो चुके हैं।
दूसरी ओर, बिम्सटेक उन राष्ट्रों की पहचान में बंधा हुआ नहीं है जो इसके सदस्य हैं। यह मूल रूप से बंगाल की खाड़ी के आसपास स्थित देशों का एक समूह है, और सार्क के एक दशक बाद 1997 में शुरू हुआ (भूटान और नेपाल 2004 में शामिल हुए)। संगठन के पास 2014 तक एक सचिवालय भी नहीं था। जबकि इसने तकनीकी क्षेत्रों में कुछ प्रगति की है, BIMSTEC देशों के नेताओं ने 22 वर्षों में सिर्फ चार बार शिखर सम्मेलन आयोजित किए हैं। पाकिस्तान जनित सीमा पार आतंकवाद पर भारत की बढ़ती निराशा के साथ, यह बिम्सटेक की क्षमता में उत्तरोत्तर वृद्धि की उम्मीद करता है। लेकिन एक विशेष कारण से इस संगठन (BIMSTEC) के सार्क का स्थान लेने की संभावना नहीं है।
BIMSTEC के दो संस्थापक सिद्धांतों में से एक है: "BIMSTEC, सदस्यों देशों के मध्य द्विपक्षीय, क्षेत्रीय या बहुपक्षीय पूर्वरचित सम्बंध का विकल्प नहीं बनते हुये एक अतिरिक्त सहयोग निर्मित करेगा होगा (Cooperation within BIMSTEC will constitute an addition to and not be a substitute for bilateral, regional or multilateral cooperation involving the Member States.)।
बिम्सटेक का आधिकारिक साहित्य इसे "दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के मध्य एक पुल" और "दक्षेस (SAARC) और आसियान [ASEAN: दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संघ] सदस्यों के बीच अंतर-क्षेत्रीय सहयोग के लिए एक मंच" के रूप में वर्णित करता है। यह महत्वपूर्ण है कि गुरुवार को आयोजित श्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में दो नेताओं - नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली और श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना - ने इस बात पर भी जोर दिया है कि बिम्सटेक सार्क का स्थान नहीं लेगा।
भारत में सार्क के गहरे प्रतिरोध की व्याख्या क्या है? स्पष्ट रूप से, सरकार के उद्धरण अनुसार पाकिस्तान जनित आतंकवाद सबसे बड़ी अड़चन है। 2016 में उरी में भारतीय सेना के ब्रिगेड मुख्यालय पर हमले के बाद इस्लामाबाद में गत आयोजित सार्क सम्मेलन में श्री मोदी ने अपनी उपस्थिति को रद्द कर दिया। अफगानिस्तान, बांग्लादेश और भूटान ने भारत की इस कार्यवाही का अनुसरण किया।
हालांकि, भारत द्वारा का यह सैद्धान्तिक निर्णय शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ), जिसमें 2017 में भारत और पाकिस्तान को शामिल किया गया था, जैसे अन्य संगठनों में लागू नहीं किया गया है। सार्क, जिसने अपने सदस्यों के द्विपक्षीय मुद्दों को हल करने के लिए कभी भी विचार नहीं किया है, के ठीक विपरीत एससीओ एक सुरक्षा-आधारित क्षेत्रीय संगठन है जो इस क्षेत्र में (सदस्यों देशों के मध्य) संघर्ष में समाधान खोजने सम्बंधी कार्य करने का इच्छुक है; यह सदस्यों के बीच सैन्य अभ्यास भी आयोजित करता है। सार्क सम्मेलन के सहभागी परन्तु कट्टर विपक्षी राष्ट्र सदस्यों के मध्य सामंजस्य स्थापित करना कठिन है, जहां भारत एससीओ में एक बड़ा देश है, और जहां रूस और चीन को बढ़त हासिल है। मॉस्को और बीजिंग, दोनों ने, भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता को सुविधाजनक बनाने की अपनी इच्छा पूरी तरह से जाहिर कर दी है, और यह देखा जाना बाकी है कि वे कितने सफल होंगे जब श्री मोदी और पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान बिश्केक (Bishkek) में एससीओ शिखर सम्मेलन (13-14 जून) में भाग लेंगे। एससीओ शिखर सम्मेलन को क्रमानुसार आयोजित किया जाता है, और अगले वर्ष इसके भारत या पाकिस्तान में आयोजित होने की संभावना है, जिसका अर्थ यह होगा कि श्री मोदी को श्री खान का या इसके उलट स्वागत करना होगा, जिसे, सरकार ने सार्क में करने से इनकार कर दिया था।
SAARC को निष्क्रिय घोषित करने वालों की पेशकश का एक अन्य कारण वो अवरोध हैं जो मोटर वाहन समझौते (MVA), ऊर्जा साझाकरण प्रस्तावों और अन्य जैसे दक्षिण एशिया उपग्रह जैसे मोदी द्वारा प्रस्तावित कनेक्टिविटी परियोजनाओं का पाकिस्तान द्वारा किये जा रहे विरोध से जनित हैं। हालांकि, इस तरह के समझौतों ने अन्य समूहों में भी प्रगति नहीं की है: बांग्लादेश-भूटान-भारत-नेपाल (बीबीआईएन) समूह भूटान के विरोध के कारण एमवीए को लागू करने में विफल रहा है, और भारत ने कई वर्षों से सीमापार विद्युत-आदान-प्रदान (cross-border power-exchanges) को बाधित किया हुआ है। इससे भूटान और नेपाल तीसरे देशों जैसे बांग्लादेश को स्वतंत्र रूप से बिजली बेच सकेंगे। भारत को पाकिस्तान द्वारा मोस्ट फेवर्ड नेशन ’(MFN) का दर्जा देने से इंकार करने के लिये भारत ने दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौते में अवरोध के लिए जायज़ तौर पर पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया है। इस फरवरी में पुलवामा हमले के बाद, भारत ने भी पाकिस्तान को प्रदत्त MFN का दर्जा वापस ले लिया, लेकिन नई दिल्ली को यह स्वीकार करना चाहिए कि अन्य क्षेत्रीय समूहों जैसे कि आसियान के नेतृत्व वाली क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (Regional Comprehensive Economic Partnership = RCEP) में भी भारत के विरूद्ध भी मुक्त व्यापार व्यवस्था को बाधित करने का आरोप है। BIMSTEC में भी इसी तरह की अड़चनों की कल्पना की सकती है।
भविष्य में, दक्षेस (SAARC) "आसियान माइनस एक्स (ASEAN minus X)" का फॉर्मूला अपना सकता है - जो सदस्य आम सहमति में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हैं, उन्हें भविष्य की तारीख में शामिल होने की अनुमति दी जा सकती है, तथा जो सदस्य कनेक्टिविटी, व्यापार या प्रौद्योगिकी सहयोग समझौतों के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं, वे बाधित नहीं किये जाएंगे।
सार्क के विरूद्ध कतिपय प्रतिरोधों का सार्क संगठन के इतिहास के साथ एकात्म है: बांग्लादेश के पूर्व सैन्य तानाशाह जियाउर रहमान, जिन्हें भारत के लिए उनकी प्रतिकूलता और विरोध के लिये जाना जाता है, ने दक्ष्ेास की परिकल्पना की थी, और उन्हें संदेह था कि वे भारत को अपने छोटे और अपेक्षाकृत कम विकसित पड़ोसियों के साथ एक मंच पर लाने में बाध्य करने में सफल होंगे। 1990 के दशक में जब भारत, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट के दावे के साथ, एक आर्थिक नेतृत्व और एक एशियाई शक्ति के रूप में अपनी भूमिका को देखना शुरू कर रहा था सार्क की पहचान अप्रासंगिक लग रही होगी। यहां तक कि पाकिस्तान का कुलीन वर्ग, जो अक्सर पश्चिम एशिया को देखता है, सार्क समूह के प्रति कम उत्साही था, जहां भारत की भूमिका "सबसे बड़े भाई" की होगी।
हालांकि, समय के साथ, भारत ने सार्क के नेतृत्व के लाभ को देखना शुरू किया, जहां पड़ोसी देश भारत के नेतृत्व अनुमानों (power projections) के लिए दबावपूर्वक उत्प्रेरक बने। बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे कुछ देशों ने विकास और मानव विकास संकेतकों पर भारत को पीछे छोड़ दिया, जिससे उनके साथ जुड़ाव के अधिक अवसर निर्मित हुए।
अन्य संभावनाएं भी बनी हुई हैं। उस क्षेत्र में जो चीनी निवेश और चीनी ऋणों से गतिपूर्वक चिन्हित व लक्षित हो रहा है, विकास के लिए और अधिक दीर्घकालिक व सतत विकल्प की मांग करने, या एक साथ व्यापार शुल्कों का विरोध करने, या दुनिया भर में दक्षिण एशियाई श्रम के लिए बेहतर शर्तों की मांग करने के लिए सार्क एक सामान्य व सामूहिक मंच हो सकता है। इस क्षमता का अभी तक अनवेषण नहीं किया गया है और न ही यह तब तक होगा जब तक दक्षेस को सहज और स्वाभाविक रूप से प्रगति करने की अनुमति नहीं दी जाती है और दुनिया की एक चौथाई आबादी वाले दक्षिण एशिया के लोग अपने भाग्य को एक साथ पूरा करने में सक्षम नही बनाऐ जाते हैं।
04-06-2019: A rocky road for strategic partners
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-opinion/a-rocky-road-for-strategic-partners/article27431024.ece
रणनीतिक भागीदारों के लिए एक कठिन मार्ग
डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन के हालिया कार्यों से विश्वास और लचीलेपन की वह नींव खतरे में है जो भारत-अमेरिका संबंधों का आधार है। हालांकि, ये कार्य अमेरिकी विदेश नीति में उत्तरोत्तर दिखाई देने वाले एक स्वरूप का हिस्सा प्रतीत होते हैं जिसमें दोस्त के साथ उत्पीड़न कर उसका आनन्द लिया जाता है। उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) और यूरोपीय संघ (यूरोपीय संघ) की निंदा करते हुये, पश्चिमी यूरोप में अपने सहयोगियों के प्रति ट्रम्प प्रशासन के असंवेदनशील दृष्टिकोण, यूरोपीय संघ के माल पर व्यापार विवादों (trade disputes) के संबंध में टैरिफ लगाने की धमकी और यूरोपीय संघ के रूस के साथ यूरोप के संबंधों, और ईरान परमाणु समझौता में वाशिंगटन की एकतरफा वापसी, इन सबने अमेरिका के यूरोपीय साझेदारों को क्रोधित किया, वे सभी इस नीति के प्रमाण हैं।
वही प्रतिमान वाशिंगटन द्वारा हाल ही में भारत के सम्बंध में की गई कार्यवाहियों के निष्पादन को स्पष्ट करता है। ये कार्यवाहियॉ ट्रम्प प्रशासन के पहले वर्ष में की गई कार्यवाहियों के ठीक विपरीत हैं जब अमेरिका सक्रिय रूप से चीन के विरूद्ध एक रणनीतिक प्रतिद्वंदी के रूप में भारत की भूमिका के निर्वहन हेतु सक्रिय प्रीति दिखा रहा था और भारत के तेजी से बढ़ते बाजार के कारण अमेरिकी व्यापार के लिए बड़ा अवसर प्राप्त होने के रूप में देख रहा था। अक्टूबर 2017 में एक प्रमुख विदेश नीति के भाषण में, तब अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन (Rex Tillerson) ने घोषणा की थी कि भारत और अमेरिका "स्थिरता के दो बहीखाते - विश्व के दोनों किनारों पर" थे और यह कि "उभरती हुई दिल्ली-वाशिंगटन रणनीतिक साझेदारी" अगले सौ वर्षों के लिए नियम-आधारित विश्व व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण के लिये आवश्यक थी।
श्री टिलरसन के भाषण से पहले ही भारत को एशिया में अमेरिकी नीति के एक स्तंभ के रूप में देखा जाने लगा था। जून 2017 में अमेरिका की प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के अंत में श्री ट्रम्प और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जारी किए गए संयुक्त बयान में 'इंडो-पैसिफिक क्षेत्र' शब्द प्रमुख रूप से प्रकट हुआ। तब से, यह अमेरिकी विदेश नीति शब्दजाल में ''एशिया-पैसिफिक क्षेत्र'' के नाम का पर्याय रहा। मई 2018 में, पेंटागन ने ''यूएस पैसिफिक कमांड'' का नाम बदलकर ''यूएस इंडो-पैसिफिक कमांड'' कर दिया, जिसमें न केवल हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर के बीच रणनीतिक संबंध पर जोर दिया गया, बल्कि यू.एस. की एशियाई रणनीति में भारत की भू-राजनीतिक प्रमुखता भी शामिल रही।
हालांकि, ट्रम्प प्रशासन ने हाल के महीनों में प्रवाह को उलट दिया प्रतीत होता है। तीन मोर्चों पर अमेरिका की एकतरफा कार्यवाहियों ने अमेरिकन रणनीति में भारत को नीचा दिखाने का प्रदर्शन किया है। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ द्वारा 22 अप्रैल को घोषणा कि वाशिंगटन 2 मई के बाद भारत और सात अन्य देशों को ईरानी तेल के आयात के संबंध में दी गई छूट का नवीनीकरण नहीं करेगा, एक संकेत था कि अमेरिकी एकतरफावाद ने सुसंगत रणनीतिक सोच को ध्वस्त कर दिया था।
भारतीय तेल आयात में ईरानी हिस्सेदारी 10% थी। हालांकि भारत के लिए ईरानी तेल को प्रतिस्थापित करना असंभव नहीं होगा, अमेरिकी घोषणा भारतीय विदेश नीति में ईरान के रणनीतिक महत्व और भारत-ईरान संबंधों को होने वाले नुकसान पर विचार करने में विफल रही।
अफगानिस्तान के भविष्य और पाकिस्तान से उत्पन्न आतंकवाद के खतरे के संबंध में ईरान के रणनीतिक स्थान और दोनों देशों की समान चिंताओं ने तेहरान को नई दिल्ली का एक आदर्श भूराजनीतिक सहयोगी बना दिया। भारत दक्षिणपूर्वी ईरान में चाबहार बंदरगाह के निर्माण में भी लगा हुआ है, जो विरोधी पाकिस्तान को दरकिनार कर भारत के लिए मध्य एशिया का प्रवेश द्वार बन सकता है। इसके अलावा, ईरानी तेल पर भारत को अमेरिकी फरमान को स्वीकार करने के लिए मजबूर करके, इसने "रणनीतिक स्वायत्तता" के उस भाव को नेस्तानबूद कर दिया है, जिसे भारतीय नीति निर्माताओं ने प्रारंभसे ही भारतीय विदेश नीति के मूल तत्व के रूप में स्थापित किया था।
इस त्रिकोण का दूसरा चरण भारत पर प्रतिबंधों को लागू करने के लिए अमेरिका की धमकी है यदि भारत रूस से एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली खरीदता है जिसके लिए अक्टूबर 2018 में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और श्री मोदी द्वारा एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। अमेरिका ने तर्क दिया है कि भारत द्वारा S-400 प्रणाली का क्रय Countering America’s Adversaries Through Sanctions Act (CAATSA) का उल्लंघन करेगा, जो एक यू.एस. संघीय कानून है जिसमें किसी देश पर उस देश के रूस के साथ प्रमुख सैन्य सौदों में प्रवेश करने के विरूद्ध प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था है।
यह भारत को कैच-22 की स्थिति (Catch-22 position) में रख देता है। अगर भारत अमेरिका की धमकियों की परवाह नहीं करता है और इस क्रय की कार्यवाही जारी रखता है तो यह भारत को आर्थिक प्रतिबंधों को झेलने पर विवश करेगा और साथ ही अमेरिका के साथ रक्षा और उच्च तकनीकी सहयोग से वंचित करेगा। यदि भारत अमेरिकी दबाव में आकर अमेरिका के सामने समर्पण करता है और रूस के साथ एस-400 सौदे को रद्द कर देता है, तो इसका रूस के साथ भारत के संबंधों के लिए निहितार्थ जो इसका सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता और एक समय-परीक्षण मित्र है, बहुत नकारात्मक प्रभाव होगा। ।
इसके अलावा, यह स्पष्ट कर देगा कि भारत सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए अमेरिका के लिये अनुचर से अधिक नहीं है, और इस प्रकार एक बार फिर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को गंभीर नुकसान पहुंचेगा।
अनभिलाषित अमेरिकी दबाव का तीसरा और नवीनतम उदाहरण 31 मई की घोषणा है कि, 5 जून से, भारत को अधिमान्य व्यापार कार्यक्रम (preferential trade programme) से हटा दिया जाएगा, जिसे जीएसपी या सामान्यीकृत प्रणाली की वरीयताएँ (GSP, i.e. Generalized System of Preferences) के रूप में जाना जाता है, जो विकासशील देशों को अमेरिकी बाजार में सरल पहुंच प्रदान करता है और साथ ही अमेरिका में उनके निर्यात पर अमेरिकी टैक्सेज़ को कम करता है। ऐसे निर्णय पर श्री ट्रम्प ने हस्ताक्षर करते हुए इस आशय का आरोप लगाया, "भारत ने अमेरिका को यह आश्वासन नहीं दिया है कि भारत अपने बाजारों में अमेरिका को न्यायसंगत और उचित पहुंच प्रदान करेगा।"
भारत जीएसपी योजना के तहत सबसे बड़ा हितग्राही राष्ट्र है, और भारत द्वारा गत वर्ष इस योजना के तहत अमेरिका को 6.35 बिलियन डॉलर का माल निर्यात किया गया था। यह भारत द्वारा अमेरिका को निर्यात की गई कुल सामग्री का लगभग 10% है। जबकि अमेरिकी निर्णय पर भारतीय प्रतिक्रिया अब तक मृदु रही है - वाणिज्य मंत्रालय ने इसे "दुर्भाग्यपूर्ण" करार दिया है - इससे नई दिल्ली में आक्रोश पैदा होना संभावित है, विशेष रूप से जब से अमेरिकी वाणिज्य सचिव विल्बर रॉस (Wilbur Ross) ने सरकार को आश्वासन दिया था कि भारत के चुनावों के तक योजना के जनित लाभ में कटौती नहीं की जाएगी, और इस प्रकार नई सरकार को इस मुद्दे पर विचार करने की अनुमति दी जाएगी।
एक साथ लिये गये इन तीन फैसलों से संकेत मिलता है कि वाशिंगटन अपनी पूर्व की घोषणाओं, कि यह भारत को एक महत्वपूर्ण "रणनीतिक भागीदार" मानता है, के बावजूद भारतीय रणनीतिक चिंताओं और आर्थिक हितों के लिए अभेद्य है। ये निर्णय एकपक्षीय लक्षणों का हिस्सा हैं जो वर्तमान में अमेरिकी विदेश नीति को प्रभावित करता है। श्री ट्रम्प और उनके सलाहकार, मुख्य रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन (Mr. John Bolton) और श्री पोम्पिओ (Mr. Pompeo), महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लेते समय दोस्त और दुश्मन के बीच के अंतर को अनदेखा करते हैं। इस तरह का रवैया अमेरिका के अपने दोस्तों और सहयोगियों के संबंधों के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है। वाशिंगटन इस तथ्य को नजरअंदाज किया हुआ प्रतीत होता है कि "अपरिहार्य राष्ट्र" को भी विश्वसनीय मित्रों और सहयोगियों की आवश्यकता होती है।
एस जयशंकर, भारत के नए विदेश मंत्री और वाशिंगटन के साथ काम करने के दीर्घ अनुभव के साथ एक उत्कृष्ट कूटनीतिज्ञ, को अमेरिकी नीति-निर्माताओं को यह विश्वास दिलाना होगा कि यह कहावत भारत के साथ अमेरिकी संबंधों के लिए प्रासंगिक है। श्री जयशंकर को अपने वार्ताकारों से नाज़ुकी से यह संप्रेषित करना चाहिए कि यह अब विशेष रूप से सच है कि अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली उत्तरोत्तर बहुध्रुवीय होती जा रही है, और इस प्रकार भारतीय नीति निर्माताओं के लिए उपलब्ध विदेशी नीति विकल्प बढ़ रहे हैं।
Mohammed Ayoob is University Distinguished Professor Emeritus of International Relations, Michigan State University and Non-Resident Senior Fellow, Center for Global Policy, Washington DC
03-06-2019: Slowdown confirmed
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-opinion/slowdown-confirmed/article27409282.ece
मंदी की पुष्टि
किसी को भी इससे इनकार नहीं है कि मोदी सरकार का दूसरा कार्यालय स्पष्ट आर्थिक मंदी के बीच प्रारंभ हुआ है। नई वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की निगरानी में शुक्रवार को जारी पहले मैक्रो डेटा के अनुसार वर्ष 2018-19 की चौथी तिमाही में 5.8% तक गिर कर जीडीपी विकास दर ने एक समग्र अर्थव्यवस्था के एक खराब प्रदर्शन के साथ पांच साल के न्यूनतम 6.8% को प्राप्त किया। सकल मूल्य वर्धित कर (जीवीए), जो कि जीडीपी माइनस टैक्स और सब्सिडी [GVA = GDP – (taxes + subsidies)] है, 2018-19 में गिरकर 6.6% पर आ गया, जो एक गंभीर मंदी की ओर इशारा करता है। यदि इस सम्बंध में अतिरिक्त पुष्टि की आवश्यकता है, तो कोर सेक्टर आउटपुट में वृद्धि – जो आठ प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों का एक समूह है - अप्रैल में 2.6% तक गिर गया, जबकि पिछले साल इसी महीने में यह 4.7% था। और अंत में, केंद्र सरकार द्वारा विवादास्पद रूप से अब तक दबाए गए बेरोजगारी के आंकड़ों से पता चलता है कि 2017-18 में बेरोजगारी 45 साल के उच्च स्तर 6.1% पर थी। ये आंकड़े सुश्री सीतारमण के लिए भविष्य की चुनौतियों पर प्रकाश डालते हैं क्योंकि उन्हें वर्ष 2019-20 के लिए 5 जुलाई को पेश होने वाले बजट का मसौदा तैयार करना है। उपभोग की मंदी से अर्थव्यवस्था घिरी हुई है जो ऑटोमोबाइल से लेकर उपभोक्ता वस्तुओं, यहां तक कि बाजार में अपेक्षाकृत गति से बिकने वाले उपभोक्ता सामान, की गिरती बिक्री से परिलक्षित हो रहा है। निजी निवेश रफ्तार नहीं पकड़ रहा है, जबकि सरकारी खर्च, जिसने पिछली एनडीए सरकार के दौरान अर्थव्यवस्था को बचाए रखा था, को 3.4% के वित्तीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने के लिए 2018-19 की अंतिम तिमाही में पुन: लागू किया गया था।
अच्छी खबर यह है कि मुद्रास्फीति अपने लक्ष्य से निचले स्तर पर है और तेल की कीमतें फिर से कम हो रही हैं। लेकिन ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर संकट है, क्योंकि पिछले वित्त वर्ष में कृषि में मात्र 2.9% की वृद्धि देखी गई थी; कृषि क्षेत्र को इस वर्ष वापस गति पर लाने के लिए एक अच्छे मानसून की आवश्यकता है। इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में, समग्र रूप से, आर्थिक विकास दर कम रहने की संभावना है, और किसी भी सुधार की संभावना दूसरी तिमाही या तीसरी तिमाही के अंत तक परिलक्षित नहीं हो रही है। नई वित्त मंत्री के समक्ष बहुत अधिक विकल्प नहीं हैं। निकट अवधि में, उन्हें उपभोग को बढ़ावा मिले, ऐसे कार्य करने होंगे, जिसका अर्थ है लोगों के हाथों में अधिक धनराशि उपलब्ध कराना। जिसका अर्थ है, करों में कटौती करना, जो कि राजकोषीय घाटे पर लगाम लगाने की प्रतिबद्धता को द्रष्टिगत रखते हुये आसान नहीं है। मध्यम अवधि में, सुश्री सीतारमण को निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए उपाय खोजने होंगे, यदि सार्वजनिक व्यय को फिर से प्रारंभ करना पड़े तो भी। इस कार्य के लिये बड़े सुधारों की आवश्यक्ता है, जो हैं - भूमि अधिग्रहण और श्रम के क्षेत्र शुरू करके, कॉर्पोरेट टैक्स व्यवस्था में छूट को कम करके और टैक्स दरों में कमी लाकर, और साथ ही बैंकों के फिर से बेहतर अवस्था में लाकर। उनके समक्ष बीमार बैंकों के पुनर्पूंजीकरण और सुदृढ़ीकरण (consolidation) जैसे विकल्प होंगे। यद्यपि, प्रश्न है कि पैसा कहां से आएगा। मंदी के कारण कर राजस्व के कम संग्रहण होने की आशंका के प्रतिपूर्त, केंद्र को विनिवेश जैसे वैकल्पिक स्रोतों को देखना होगा। बहुत कम विकल्प की उपलब्ध्ता के साथ निजीकरण पर पर जाना पड़ सकता है। इस सप्ताह व्यापक रूप से अपेक्षित, भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा, दर में कटौती, निश्चित रूप से उत्साह में वृद्धि करेगी। लेकिन मात्र बजट ही वास्तव में अर्थव्यवस्था के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा।
03-06-2019: Make up for lost time
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-opinion/make-up-for-lost-time/article27409288.ece
खोये समय की प्रतिपूर्ति
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान, आजीविका (रोटी-और-मक्खन) के मुद्दों से स्वंय को दूर रखकर, मतदाताओं का ध्यान आर्थिक कठिनाइयों की ओर से सफलतापूर्वक विलग किया। एक निर्णायक जनादेश जीतने के बाद, अपने दूसरे कार्यकाल में उनकी सरकार को नए सुधारों के लिए अब स्वंय को एक सुविचारित रणनीति के लिए समर्पित करना चाहिए।
शुक्रवार 31.05.2019, जो नई सरकार का कार्यालय में पहला दिन था,को जारी किए गए आधिकारिक अनुमान के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 2018-19 में पांच साल के निचले स्तर 6.8% पर पहुंच गई, यहां तक कि 2017-18 में बेरोजगारी दर भी बढ़कर 45 साल के उच्च स्तर 6.1% पर पहुंच गई। जनवरी-मार्च तिमाही में कृषि सकल मूल्य वर्धित (जीवीए, GVA = Gross Value Added) वृद्धि नकारात्मक 0.1% और विनिर्माण जीवीए वृद्धि (manufacturing GVA growth) 3.1% अनुमानित है।
देश की अर्थव्यवस्था, निवेश और विनिर्माण मंदी, ग्रामीण आपदा, अलाभकारी कृषि आय, स्थिर निर्यात, बैंकिंग और वित्तीय गड़बड़ी और एक रोजगार संकट से जूझ रही है। वस्तु निर्माताओं की संख्या में वृद्धि के सन्दर्भ में बिक्री के आंकड़े और कार निर्माताओं के निरंतर उत्पादन कटौती यह पुष्टि करते हैं कि खपत खपत खर्च की गति मंथर हो गई है। मोदी की नई सरकार के लिए शीर्ष आर्थिक प्राथमिकता संगत नीति के दृष्टिकोण में विश्वसनीय कार्यप्रणाली सुधार होना चाहिए जिसके मापदंड हों - निर्माण, अभिव्यक्ति और लक्ष्यों की स्थापना।
मोदी की पिछली सरकार ने अच्छी शुरुआत की लेकिन जल्द ही दिशा भी खो दी। संरचनात्मक सुधारों के खाका (blueprint) की तरह दिखने वाली घोषित योजनाऐं - कृषि में मंदी को अवशोषित करने के लिए श्रम और भूमि नीतियों में विस्तार करते हुये और एक बहुत आवश्यक विनिर्माण वर्धन (manufacturing push) ‘मेक इन इंडिया’ को 2015 के अंत तक त्याग दिया गया।
प्रारंभिक ऊर्जा और अतिउत्साह ने गलतफहमी और दुस्साहस जैसे कि विमुद्रीकरण तथा खराब प्रारूप और परिकल्पना के साथ प्रभावी किये गये माल और सेवा कर (जीएसटी) शासन-पद्धति को जन्म दिया। वित्त मंत्रालय के नौकरशाहों से प्रधान मंत्री कार्यालय को बार-बार याद दिलाने के बावजूद, जीर्ण सार्वजनिक बैंकिंग प्रणाली और वित्तीय क्षेत्र की समस्याओं पर कुछ ही ध्यान दिया गया। यहां तक कि दिवाला और शोधन अक्षमता सुधार(insolvency and bankruptcy reform), एक समर्थ आर्थिक सुधार जो अपेक्षाकृत धीमी गति से और अस्थायी रूप से प्रभावी किया गया, पर पहले से ही शिथिल हो जाने का जोखिम है।
श्री मोदी और उनके पूर्ववर्तियों, मनमोहन सिंह सहित, द्वारा गत वर्षों में सुधारों की संचयी उपेक्षा ने सुनिश्चित किया है कि अर्थव्यवस्था अपनी विकास क्षमता और लोगों की आकांक्षाओं, दोनों के सापेक्ष, कम हो रही है।
आर्थिक मापदंड के आधार पर आरक्षण को प्रभावशील करने के लिए संविधान संशोधन में जल्दबाजी की गई थी और फरवरी में पेश किया गया अंतरिम बजट, जिसमें मध्यम वर्ग के भारतीयों और किसानों को सस्ती आर्थिक छूटों ने प्राबल्य रखा, स्पष्ट करता है कि मोदी आर्थिक मोर्चे पर चुनौती की भयावहता से पूर्णतया अनभिज्ञ नहीं थे।
लेकिन अब क्या वे आवश्यक समाधानों पर दुरूस्त परामर्शों को सुन रहे हैं? इस वर्ष की शुरुआत में श्री मोदी ने जिस तरह का राजनीतिक बल प्रयोग किया, उससे अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता है; अर्थव्यवस्था की ये संरचनात्मक समस्याऐं अच्छी तरह से तैयार किए गए आर्थिक उपायों की मांग करती हैं।
संवहनीय और सतत आजीविका
शौचालय, रसोई गैस कनेक्शन और आवास या महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) मजदूरी और आय पूरक योजनाओं के सार्वजनिक प्रावधान वस्तुत: राहत के अस्थायी स्रोत हैं। वे गरीबी को कम करने के लिए आर्थिक विकास मॉडल या रणनीति नहीं हैं। वे जीवन निर्वाह के लिए अल्प संसाधन प्रदान करके गरीबों की मदद कर सकते हैं। निर्धनता को कम करने की द्रष्टि से निर्धनों के लिए स्थायी आजीविका उत्पन्न करने के लिए आर्थिक विकास की आवश्यकता है।
मात्र पुनर्वितरण कराधान नीतियों द्वारा यह कार्य अकेले नहीं किया जा सकता है। गहन रूप से उलझे हुए कारक आय में वृद्धि करने वाले कौशल, शिक्षा, स्वास्थ्य और नौकरी के अवसरों तक गरीबों की पहुंच में बाधा डालते हैं और गरीबों तक विकास के बहाव में बाधा डालते हैं। उदाहरण के लिए, मोदी सरकार की ‘मेक इन इंडिया’ रणनीति सही दिशा में एक कदम था, और इसे पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। सही रूप से इसका क्रियान्वयन कृषि क्षेत्र में मंदी को अवशोषित कर सकता है।
संगठित क्षेत्र की बहुत कम ही नौकरियां भारत में उत्पन्न होती हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था में न्यून-मजदूरी के सापेक्ष प्रचुरता के बावजूद उद्योग वास्तव में पूंजी-गहन उत्पादन (capital-intensive production) पसंद करते हैं। अनेकोंअनेक साधक प्रति रोजगार की पृष्ठभूमि में नियोक्ताओं के समक्ष उर्जा के सापेक्ष श्रम में कम सौदेबाजी की शक्ति होती है। यदि उत्पादन अपेक्षाकृत कम पूंजी-गहन होता, तो संगठित क्षेत्र की अधिक नौकरियों का सृजन होता। साथ ही, श्रम की सौदेबाजी की शक्ति में सुधार होता।
पूंजी की कम लागत के ध्येय से उद्योग लॉबी द्वारा मचाये गये निरंतर शोर की पृष्ठभूमि में उत्तरोत्तर सरकारों ने हाल के वर्षों में इस संरचनात्मक कमजोरी को और विकराल बनाया है मोदी की पहली सरकार का रिकॉर्ड इससे अलग नहीं था। ‘मेक इन इंडिया’ में अंतर्निहित आर्थिक रणनीति पूरी तरह से भटक गई क्योंकि आर्थिक पुनरुद्धार की उसकी योजना राजकोषीय और मौद्रिक पूर्तियों तक सीमित हो गई थी।
राजकोषीय और मौद्रिक नीति समायोजन के अनुगमन मात्र से भारत की आर्थिक विकास क्षमता का उत्थान संभव नहीं है। यह बैंकिंग, भूमि और श्रम सुधारों के बिना असंभव है जो अब तक कोई भी सरकार देने में सक्षम नहीं रही है।
क्या श्री मोदी अतीत के लोकलुभावनवाद को निरन्तर रखेंगे, या 1990 के दशक में पहली बार प्रस्फुटित होने के बाद से लंबित रहे आर्थिक सुधारों को लागू करने का मोर्चा संभालेंगे? क्या सशक्त अर्थशास्त्र उनकी नीतियों से संवाद करेगा, या क्या वे अर्थशास्त्रियों के लिए एक सरल, त्वरित लेकिन अप्रभावी सुधार के बजाय एक तिरस्कार भरा भाव बनाए रखेंगे?
साझे के छोटे व्यवसायों या छोटी फर्मों (small firms) को ही लें। रोजगार सृजन में वे जो भूमिका निभाते हैं, उसके लिए छोटी फर्मों को आसान ऋण और कराधान मानदंडों के साथ प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके बजाय, अव्यवस्थित जीएसटी अनुपालन और प्रतिदाय की रूपरेखा (refunds framework) ने उन पर गैर-आर्थिक अनुपालन मूल्यों/ लागतों को लागू किया गया।
डेटा संग्रहण
अंत में, नीतिगत प्रतिमान का कोई भी क्रम-विकास (evolution) संभव नहीं होगा यदि आधिकारिक आंकड़ों के संग्रह, अनुमान और प्रस्तुति में विश्वसनीयता का संकट उचित रूप से संबोधित नहीं किया गया है। बेरोजगारी और जीडीपी के आंकड़ों पर प्रख्यात अर्थशास्त्रियों और सांख्यिकीविद् द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब में पहली मोदी की पूर्ववर्ती सरकार ने असुविधाजनक आंकड़ों को दबाने या राजनीतिक प्रेरणाओं को आरोपित करने के अतिरिक्त शायद ही कुछ और किया। रचनात्मक आलोचना के साथ कुछ अधिक परिपक्व तरीके की आवश्यक्ता है।
Puja Mehra, a Delhi-based writer, is the author of ‘The Lost Decade: 2008-18’
03-06-2019: U.S. visa process needs social media profiles now
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/us-visa-process-needs-social-media-profiles-now/article27409422.ece
अमेरिकी वीजा प्रक्रिया में सोशल मीडिया प्रोफाइल की आवश्यक्ता
संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रवेश करने की मांग करने वालों की निगरानी बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम में, वाशिंगटन द्वारा अधिकांश व्यक्तियों को वीसा हेतु आवेदन करते समय अपने सोशल मीडिया हैंडल का गत पॉच वर्षों का विवरण प्रदान किया जाना आवश्यक होगा। इस नियम से सालाना करीब 15 मिलियन लोगों के प्रभावित होने की आशंका है।
सोशल मीडिया अकाउंट हिस्ट्री की आवश्यकता की पूर्ति हेतु ऑनलाइन वीज़ा फॉर्म पिछले सप्ताह के अंत में चालू हो गए थे और कुछ आधिकारिक और राजनयिक वीजा के लिए आवेदन करने वालों को छोड़कर इस व्यवस्था में समस्त आवेदकों को शामिल किया जाएगा।
सभी अप्रवासी और गैर-आप्रवासी वीजा आवेदकों के लिए सोशल मीडिया इतिहास के डेटा संग्रह का वीसा आवेदन व्यवस्था में विस्तार करने का नियम पहली बार विदेश विभाग (State Department) द्वारा अप्रैल 2018 में प्रकाशित किया गया था। देश में प्रवेश करने वाले विदेशियों के लिये यह राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की "अधिकतम पुनरीक्षण (extreme vetting)" की नीति, जो उनके चुनाव अभियान का विशेष मुद्दा थी और जिसे वर्ष 2017 में उनके कार्यकारी आदेशों के माध्यम से स्पष्ट किया गया था, को लागू करने की इच्छा का परिणाम था।
सोशल मीडिया की जानकारी इससे पहले मात्र कतिपय विशिष्ट व्यक्तियों, जिनके आवेदन की अतिरिक्त समीक्षा की आवश्यकता होती थी, से ही पूछी जाती थी। अब समस्त आप्रवासी (प्रपत्र डीएस-260) और गैर-आप्रवासी (प्रपत्र डीएस -160) हेतु ऑनलाईन वीज़ा आवेदन हेतु उक्त जानकारी की आवश्यकता है।
इस नए प्रस्ताव से भारतीय आवेदनों की उच्च मात्रा के प्रभावित होने की संभावना है।
03-06-2019: Astronaut’s body biology changes during space travel
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-features/tp-sci-tech-and-agri/astronauts-body-biology-changes-during-space-travel/article27403741.ece
अंतरिक्ष यात्रा के दौरान अंतरिक्ष यात्री के शरीर के जैविक बदलाव
दुनिया का पहले अंतरिक्ष यात्री तत्कालीन सोवियत संघ का यूरी गागरिन थे। उन्होंने 12 अप्रैल 1961 को पृथ्वी के चारों ओर एक परिक्रमा पूरी करते हुए बाहरी अंतरिक्ष की यात्रा की। इसने अमेरिका को "प्रोजेक्ट अपोलो" लॉन्च करने के लिए उकसाया, ताकि वह मनुष्यों को चंद्रमा पर भेज सके और उन्हें वापस ला सके - और उन्होंने किया। चंद्रमा से लौटने के बाद, अंतरिक्ष यात्री आर्मस्ट्रांग ने प्रसिद्ध बयान दिया: "मनुष्य के लिए एक छोटा कदम, मानव जाति के लिए एक विशाल छलांग है।" और आज तक, 37 देशों के 536 से अधिक लोग अंतरिक्ष यात्री रहे हैं, जिनमें हमारे अपने राकेश शर्मा भी शामिल हैं। और आज, कम से कम चार कंपनियां हैं जो, यदि आपके पास पैसा और जुनून है, आपके अंदर के अंतरिक्ष यात्री को आप से बाहर करने की व्यवस्था करेंगी।
पृथ्वी से अंतरिक्ष में जाने से मानव शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है - इसकी रसायन विज्ञान, शरीर विज्ञान, जीव विज्ञान और संबंधित चिकित्सा की स्थिति किस प्रकार प्रभावित होती है? उदाहरण के लिए मंगल जिसकी पृथ्वी से न्यूनतम दूरी 57 मिलियन किमी है, तक पहुँचने में लगभग 300 दिन लगते हैं। इस एक वर्ष की यात्रा की अवधि में कितना शारीरिक परिवर्तन हो सकता है? यह इन मुद्दों के साथ था कि यूएस के नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (NASA) ने एक अंतरिक्ष यात्री में विभिन्न जैविक लक्षणों में होने वाले परिवर्तनों का परीक्षण करने के लिए एक प्रयोग किया, जिसे (अंतरिक्ष यात्री को) अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) में तैनात किया जाएगा, जो कि 400 किमी ऊपर है, और प्रत्येक दिन पृथ्वी के अनेक चक्कर पूरे करता है।
उन्होंने (नासा ने) ISS पर स्कॉट केली (Scott Kelly) नाम के एक अंतरिक्ष यात्री को एक वर्ष के लिए रखा, और वहां उसके उड़ान में रहते हुये उसके अनेक जैविक मापदंडों को मापा गया। परिवर्तनों में तुलना के लिए, "नियंत्रण" के रूप में उन्होंने उसके आनुवंशिक रूप से समान जुड़वां मार्क केली (Mark Kelly) को चुना, उसे धरती पर ही रहने दिया और समान मापदंडों पर परीक्षण किये। यह केस-कंट्रोल अध्ययन एक शानदार रणनीति थी, क्योंकि नासा ने स्कॉट केली और मार्क केली पर जिन परिवर्तन का परीक्षण किया, उन्हें अंतरिक्षप्रवास-धरतीप्रवास के प्रभावों को जानने समझने के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
पृथ्वी पर तथा इस के ठीक विपरीत अंतरिक्ष में, शरीर जीव विज्ञान को प्रभावित करने वाले कारक क्या हो सकते हैं? एक तो वह है जिसे हम शून्य गुरुत्वाकर्षण या सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण (zero gravity or micro-gravity) कहते हैं। अंतरिक्ष में, व्यक्ति भारहीनता महसूस करता है, जो उसके शरीर को प्रभावित करती है। पृथ्वी पर, गुरुत्वाकर्षण हमें सीधा रहने की अनुमति देता है। खड़े होने या चलने के दौरान, हमारे शरीर के तरल पदार्थ नीचे की ओर बहते हैं [हमारे शरीर में ऐसे पंप और वाल्व निर्मितहैं जिससे प्राकृतिक बहाव के खिलाफ विरूद्ध परिसंचरण (circulation) को बनाए रखा जा सके]। अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण या माइक्रोग्रैविटी इस तरह के द्रव संचार को प्रभावित करेगा। जैसा कि डॉ. लोबरिक और डॉ. जेगगो (Dr. Lobrich and Dr. Jeggo) इंगित करते हैं (Science, 12 April 2019, pp 127-128), पृष्ठीय गुरुत्वाकर्षण (surface gravity) ने पृथ्वी पर जीवन को आकार दिया है और दैहिक प्रक्रियाओं (physiological processes) इससे अनुकूलित हो चुकी है। शून्य या माइक्रोग्रैविटी उन्हें कैसे प्रभावित करेगी?
चिंता का दूसरा बिंदु आयनीकृत विकिरण (ionizing radiation) या आईआर के संपर्क में आने (exposure) सम्बंधी है। यह ब्रह्मांडीय किरणों, सौर ज्वालाओं आदि से उत्पन्न होता है, जो परिभ्रमण करने वाले अंतरिक्ष यात्रियों (circumnavigating astronaut) को प्रभावित करेगा। वायुमंडल और पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी पर हम पृथ्वीवासियों की यथोचित कुशलता से रक्षा करता है। स्थलीय जुड़वां अर्थात जो पृथ्वी पर है, इस प्रकार अंतरिक्ष जुड़वां की तुलना में आईआर से बेहतर संरक्षित है।
अंतरिक्ष में किसी व्यक्ति और भूमि पर उनके जुड़वाँ के साथ अनेक रासायनिक, शारीरिक और जैव रासायनिक विशेषताओं की तुलना करने का यह दोहरा प्रयोग वैज्ञानिकों के एक समूह ((Francine Garrett- Bakelman et al., Science 364, eaau8650 (2019) DOI: 10.1126/science.aauu.8650) द्वारा विस्तार से किया गया। उन्होंने विभिन्न प्रकार की अनुभूतियों यथा दैहिक, क्रिया विज्ञान, जैव रासायनिक परिवर्तन, सूक्ष्म जीव विज्ञान और जीन अभिव्यक्ति का अध्ययन किया, और साथ ही साथ टेलोमेरस (telomeres) नामक गुणसूत्रों के छोर का भी। उन्होंने पृथ्वी पर मार्क के साथ ठीक वैसा ही किया। इसके अलावा, उन्होंने स्कॉट पर उसकी उड़ान से पहले, उड़ान के दौरान और वापस लौटने के तुरंत बाद, और फिर छह माह पश्चात उनकी निगरानी की। यह पूरा अध्ययन 25 महीनों तक चला।
उन्होंने क्या पाया? कुछ जैविक कार्य जैसे प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (टी कोशिकाएं), शरीर द्रव्यमान, आंतों में माइक्रोबियल सामग्री और कुछ अन्य "कम जोखिम" श्रेणी में थे। कुछ अन्य, जैसे कि वाहिका में तरल पदार्थ मध्य-स्तर के जोखिम के थे। अंतरिक्ष उड़ान में उच्च जोखिम को टेलोमेरस के साथ क्रोमोसोम सिरों पर करना था- उन्होंने छोटा कर दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि IR का उड़ान में उन पर प्रभाव था। माइक्रोग्रैविटी का प्रभाव तरल पदार्थों के सिर-वार्ड शिफ्ट में, कैरोटिड दीवार के मोटा होना और इसलिए कार्डियोवस्कुलर और सेरेब्रो-संवहनी परिवर्तनों में महसूस किया गया था। आंख के रेटिना के चारों ओर रक्त प्रवाह और कोरॉइड का मोटा होना पाया गया, जिससे उनकी दृष्टि थोड़ी धुंधली हो गई।
खुशी की बात है कि जब नासा ने स्कॉट के आईएसएस से लौटने के पश्चात महीनों तक पर्यवेक्षण में रखा, उन्होंने पाया कि उड़ान के दौरान हुये कई बदलाव उड़ान के पूर्व के स्तर पर वापस आ गए थे। जबकि हमें ऐसे और अधिक अध्ययनों की आवश्यकता है, यह स्पष्ट हो जाता है कि लंबे समय तक अंतरिक्ष यात्रा जैविक और शारीरिक स्तर को प्रभावित कर सकती है और, यात्रा जितनी अधिक होगी उतना अधिक प्रभाव होगा। और एक अंतरिक्ष यात्री को उड़ान के बाद और भी अधिक स्वास्थ्यप्राद (recuperation = healing) समय की आवश्यकता हो सकती है ताकि उड़ान के दौरान जनित परिवर्तन लुप्त हो जाएं, और अंतरिक्ष यात्री को अपना सामान्य शरीर वापस पा सके।
02-06-2019: Body scanners made mandatory at 84 airports
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/todays-paper/body-scanners-made-mandatory-at-84-airports/article27403810.ece
84 हवाई अड्डों पर बॉडी स्कैनर्स को अनिवार्य किया गया
देश के 84 हवाई अड्डों के लिए सरकार ने एक वर्ष के भीतर हवाई यात्रियों की स्क्रीनिंग के लिए फुल-बॉडी स्कैनर (full-body scanners) स्थापित करना अनिवार्य कर दिया है और उनके उपयोग के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (standard operating procedure) जारी कर दी है।
84 हवाई अड्डों में 26 अति-संवेदनशील हवाई अड्डे और 58 संवेदनशील हवाई अड्डे शामिल हैं। अन्य हवाई अड्डों के पास इन स्कैनर्स को स्थापित करने के लिए दो साल का समय है।
यह उपकरण वॉक-थ्रू मेटल डिटेक्टरों (walk-through metal detectors) की जगह लेगा और यात्रियों को जूते, बेल्ट, जैकेट, मोटे कपड़े उतारने होंगे और सभी धातु की वस्तुओं का अलग रखना होगा। ब्यूरो ऑफ सिविल एविएशन सिक्योरिटी [Bureau of Civil Aviation Security (BCAS)] द्वारा अप्रैल में सभी हवाई अड्डों को भेजे गये परिपत्र के अनुसार यह प्रक्रिया विश्व में सबसे प्रमुख हवाई अड्डों पर प्रचलित है, जो एसओपी (SOP - Standard Operating Procedure) के अनुसार रखी गई है।
हालांकि, 10% यात्रीगण आकस्मिक परन्तु पूर्ण पैट-डाउन तलाशी (full pat-down searches) के अधीन रहेंगे।
उपरोक्त परिवर्तन के कारणों पर जारी किये गये परिपत्र के अनुसार ‘’वॉक-थ्रू मेटल डिटेक्टर और हैंड-हेल्ड मेटल डिटेक्टर नॉन-मेटालिक या अधातु हथियारों और विस्फोटकों का पता नहीं लगा सकते। बॉडी स्कैनर शरीर में छुपे हुये धातु और गैर-धातु सामग्री, दोनों, का पता लगाते हैं।
यात्रियों के नग्न प्रतिबिंबों को बनाने वाली इन मशीनों के उपयोग से जनित चिंताओं के समाधान हेतु बीसीएएस (BCAS) ने निजता के निष्यंतकों (privacy filters) को अनिवार्य कर दिया है। फलस्वरूप, ये स्कैनर केवल एक रूपरेखा या पुतला जैसी छवि का उत्पादन करेंगे, जो पुरूष एवं स्त्री दोनों के लिए समान होगी। शरीर के उन क्षेत्रों को उजागर करने के लिए जहॉ और अधिक स्क्रीनिंग की आवश्यकता हो सकती है, की छवि पर एक पीला बॉक्स प्रकट होगा।
परिपत्र ने लेख किया है, “स्कैनर एक सामान्य पुतले का उपयोग करके छवि-मुक्त समाधान प्रदान करेगा। (शरीर मेंं छुपी हुई अवांछित सामग्री की) आशंकाओं को रेखांकन के माध्यम से प्रस्तुत किया जाएगा।‘’
ये स्कैनर्स मिलीमीटर तरंग प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हैं, जिसका अर्थ है कि यात्रियों को हानिकारक एक्स-रे विकिरण के अधीन नहीं किया जाएगा, और मशीन गर्भवती महिलाओं सहित समस्त के उपयोग के लिए सुरक्षित है।
बीसीएएस द्वारा बताई गई तकनीकी विशिष्टताओं के अनुसार, ये स्कैनर्स हवाई अड्डों में यात्री प्रवाह क्षमता (throughput) को बेहतर बनाने में मदद करेंगे, क्योंकि स्क्रीनिंग में प्रति यात्री आठ सेकंड की दर पर प्रति घंटे 300 यात्रियों की स्क्रीनिंग करने की आवश्यकता होती है।
Courtesy and Credit: https://www.thehindu.com/opinion/editorial/a-second-election/article27394438.ece
02.06.2019: A second election for Israel (Editorial)
इज़राइल के लिए दूसरा चुनाव (सम्पादकीय)
जब इज़राइल में अप्रैल के चुनावों के परिणामों की घोषणा की गई, तो बेंजामिन नेतन्याहू, जिनकी लिकुड पार्टी ने 120 सदस्यीय संसद में 35 सीटें जीतीं, विजेता रहीं। उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में एक रिकॉर्ड अवधि के लिए दक्षिणपंथी और धार्मिक दलों के समर्थन से सरकार बनाने के लिए तैयार किया गया था। लेकिन उनकी योजनाएं अति-रूढ़िवादी यहूदी दलों और दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी यिसरेल बेइतिनु के एक साथ न आने के कारण फलीभूत नहीं हो सकीं।
जब सरकार बनाने की समय सीमा 29 मई को समाप्त हो गई, तो नेतन्याहू के पास 60 सांसदों का समर्थन था, जो बहुमत से कम था। इज़राइल के इतिहास में पहली बार, एक नामित प्रधान मंत्री (Prime Minister-designate) सरकार बनाने में विफल रहा, और देश सितंबर में फिर से चुनावों में जाएगा।
सरकार बनाने में आड़े आ रहा मुद्दा एक सैन्य सेवा बिल है। अति-रूढ़िवादी यहूदी समूह, हरदीम (the Haredim), अनिवार्य सैन्य सेवा से मुक्त हैं। नेतन्याहू के पूर्व सहयोगी और यिसरेल बेइतिनू (Yisrael Beiteinu) दल के नेता एविग्डोर लिबरमैन (Avigdor Lieberman) ने केसेट (Knesset, the Assembly of Israel को एक बिल पेश किया है, जिससे सरकार उसका मसौदा तैयार कर सकेगी। श्री लिबरमैन, जिनके पास पांच विधि-निर्माता हैं, ने इसे अपने समर्थन के लिए यह एक पूर्व शर्त रखी है कि इस बिल को पारित किया जाए। दूसरी तरफ, रूढ़िवादी पार्टियां, जिनमें 16 विधायक हैं, चाहती थीं कि बिल में संशोधन किया जाए। श्री नेतन्याहू के दक्षिणपंथी धार्मिक गठबंधन का पतन उनकी आंखों के सामने हो गया।
श्री नेतन्याहू सरकार बचा ले जाएंगे। वह सितंबर के चुनावों में लिकुड (Likud) का नेतृत्व करना जारी रखेंगे और गठबंधन सरकार बनाने के लिए अपने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में बेहतर स्थान पर रहेंगे। हालांकि, उनकी चुनौतियां बढ़ रही हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों पर उनकी पूर्व-अभियोग सुनवाई के लगभग दो सप्ताह पहले नया चुनाव होगा।
आरोपों ने पहले ही श्री नेतन्याहू की छवि को धूमिल कर दिया है। दशकों तक, उसने खुद को इज़राइल की पुरानी स्थापना अभिजात वर्ग के लिए एक मजबूत, बेहतर विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया था। उनकी युद्ध संबंधी बयानबाज़ी, मज़बूत नीतियों और रूढ़िवादी यहूदियों के तुष्टिकरण ने उनके व्यक्तित्व पर उस समय कुठाराघात किया जब इजरायल के मतदाता लगातार दक्षिणपंथ की ओर बढ़ रहे थे। लेकिन अप्रैल के चुनाव और श्री नेतन्याहू के गठबंधन के भीतर के दरार से पता चलता है कि राजनीतिक परिदृश्य बदल सकता है।
इजरायली वामपंथ अब श्री नेतन्याहू का मुख्य राजनीतिक खतरा नहीं है। लेबर पार्टी ने अप्रैल के चुनावों में केवल 4.43% वोट और छह सीटें जीतीं, जबकि ब्लू और व्हाइट (the Blue and White), एक मध्यमार्गी गठबंधन जो कि राष्ट्रीय सुरक्षा पर उतना ही आक्रामक है जितना लिकुड (Likud), ने 35 सीटें जीतीं। ब्लू एंड व्हाइट को इस बार सरकार बनाने का मौका नहीं मिला क्योंकि इसमें सहयोगी दलों की कमी थी।
अनिवार्य सैनिक-भरती बिल के सन्दर्भ में श्री नेतन्याहू को समर्थन देने से इनकार करते हुए, श्री लेबरमैन इस वामपंथ -दक्षिणपंथ की लड़ाई को कमजोर करने और धर्मनिरपेक्ष-बनाम-धार्मिक मुद्दों पर ध्यान देने की और कोशिश कर रहे हैं। श्री लेबरमैन का कहना है कि वह इजरायल को धार्मिक राज्य बनने से रोकने के लिए लड़ रहे हैं, और ऐसा कहकर वह श्री नेतन्याहू के धार्मिक दलों के साथ बने संबंधों पर हमला कर रहे हैं। श्री नेतन्याहू के सामने चुनौती यह है कि उन्हें बढ़ती राजनीतिक और कानूनी बाधाओं से कुछ महीने बाद ही होने वाले चुनाव में लड़ना है।