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अशआर मेरे कब से ज़माने के लिये हैं
इस संकलन में 70 नज़्में ओर ग़ज़लें हैं जो गत 37-38 वर्षों में मेरे द्वारा समय समय पर लिखी गईं।
लेकिन यह सच है कि कोई भी कविता हो, किसी भी भाषा में हो, उसका एक किरदार होता है, और कोई मौजूं होता है।
फिर भी ये बताना ज़रा मुश्किल है कि वो वक्त क्या था, वो मंज़रेखास क्या था जिसने मुझे ये लिखने का हौसला दिया।
पेशेखिदमत हैं इस किताब, जिसमें दर्ज हैं बेचैन लम्हों की 70 दास्तानें, में से कुछ अशआर
ज़रा अपना दस्तेनाज़ तो दे दो मेरे हाथों में
यही मेरी आरज़ू है चाहे फिर छोड़ देना
और मेरी जि़न्दगी के रेगज़ार पर
घरौन्दा बनालो और बनाकर तोड़ देना
(इसी संकलन से)
तेरी दीवानगी के अक्स, तेरा वो रंगेइसरारेवस्ल
तेरी महबूब निगाहों का पयाम, तेरी तिश्नालबी का आफ़ाक़
फ़ना हो गये सब तर्केआशनाई में
(इसी संकलन से)
(1) जि़न्दगी-ए-यक्सां
राहेगर्दिश पर शायद अपने कदम आ गए हैं
तलाशेमंजिल में कहां से कहां हम आ गए हैं
कोई जाके उनसे कह दो आने को बज़्मेनशात[1] में
आज होगा दौरे शराब, मुझ तक हुजूमेग़म आ गए हैं
उनको भूलना अब मुनासिब ना होगा मेरे लिए
राहे वफा पर मुझसे मिलने मेरे सनम आ गए हैं
ऐ जिंदगी छोड़ मेरा पीछा कि देर हुई जाती है
अपने क़दम अब जानिबेकू-ए-अदम[2] आ गए हैं
[1] आनन्द की सभा
[2] परलोक की ओर
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